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रसास्वादन सम्भव नहीं। अप्राप्यकारी ज्ञान अपने स्थान में स्थित होकर ही ज्ञेय को जानता है, ज्ञेय के स्थान को प्राप्त कर नहीं। यदि ऐसा हो तो माला, चन्दन, स्त्री तथा मनोज्ञ पदार्थों के चिन्तन (ज्ञान) मात्र से ही तृप्ति होने लगे, किन्तु ऐसा नहीं होता।
हमने जो ज्ञान की अपेक्षा से ईश्वर के सर्वव्यापी होने से सहमति दर्शायी, उसका यही कारण है कि-सर्वज्ञ श्री जिनेन्द्र प्रभु के विषय में ज्ञान की अपेक्षा सर्वगतत्व जैन दार्शनिक भी स्वीकार करते हैं। किसी मनुष्य की बुद्धि शक्ति का अनुभव करके लोग कहते हैं कि इसकी बुद्धि सब शास्त्रों में प्रखर है। ठीक इसी प्रकार यहाँ भी हमने जिनेश्वर के ज्ञान की शक्ति का अनुभव करके जिनेश्वर भगवान को ज्ञान की अपेक्षा सर्वव्यापक कहा है। ज्ञान प्राप्यकारी नहीं है क्योंकि वह आत्मा का धर्म है। अतः ज्ञान आत्मा से बाहर (पृथक् ) नहीं रह सकता। यदि ज्ञान प्रात्मा से बाहर निकलने की बात मानी जाए तो
आत्मा के अचेतनत्व की आपत्ति उपस्थित हो जायेगी। वैशेषिकों ने जो सूर्य का दृष्टान्त दिया है कि सूर्य की किरणें गुणरूप होकर भी सूर्य से बाहर जाकर संसार को प्रकाशित करती हैं, उसी तरह ज्ञान प्रात्मा का गुण होकर
विश्वकर्तृत्व-मीमांसा-४६