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दर्शनवादी ने सर्वव्यापक मानने में हेतु प्रदान किया है कि-यदि ईश्वर को नियतस्थानवर्ती माना जाये तो त्रिलोक में अनियत स्थानों के पदार्थों की यथावत् उपस्थिति नहीं हो सकेगी। यह प्रश्न समुदित होता है कि त्रैलोक्य की सृष्टि करने वाला ईश्वर साक्षात् शरीर की मदद से विश्व-जगत् की रचना करता है या संकल्प मात्र से ? प्रथमपक्ष स्वीकार करने में पृथ्वी पर्वत आदि के निर्माण में अत्यन्त कालक्षेप की सम्भावना के कारण सुदीर्घकाल तक विश्व-रचना न हो सकेगी। यदि द्वितीयपक्ष माने कि एक स्थान पर रहकर संकल्प मात्र से ईश्वर विश्वरचना करता है तो दोष प्रतीत नहीं होता क्योंकि सामान्य देव भी संकल्पमात्र से तत्-तत् कार्यों का सम्पादन करते हैं।
ईश्वर को शरीर की अपेक्षा सर्वव्यापी मानने से वह ईश्वर अशुचि पदार्थों के सम्पर्क से महान्धकार से व्याप्त नरक आदि में भी रहा करेगा और यह मानना आपको अभीष्ट नहीं है। यदि आप हमारे मत पर आक्षेप करते हुए कहें कि ज्ञान की अपेक्षा जिनेश्वर भगवान को भी तत्-तत् पदार्थानुभव से अनिष्टापत्ति दोनों को समान है तो यह कहना समीचीन नहीं होगा क्योंकि ज्ञानमात्र से
विश्वकर्तृत्व-मीमांसा-४८