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होतो है। अपुनर्बन्धक के देव-गुरु इत्यादि की पूजन, सदाचार, तप और मुक्ति से अद्वेष रूप 'पूर्वसेवा' मुख्यरूप से होती है। अपुनर्बन्धक जीव शान्तचित्त और क्रोध इत्यादि से रहित होते हैं। तथा जिस तरह भोगी पुरुष अपनी स्त्री का चिन्तन करता है, उसी प्रकार वे सतत संसार के स्वभाव का विचार करते रहते हैं। कुटुम्ब इत्यादि में प्रवृत्ति करते रहने पर भी उसकी प्रवृत्तियाँ बन्ध का कारण नहीं होती। अपुनर्बन्धक वितर्कप्रधान होता है और इसके क्रमशः कर्म और आत्मा का वियोग होकर इसे मोक्ष प्राप्त होता है ।) आदि जीवों से भिन्न हैं, इसलिए उपदेश के पात्र नहीं हैं।
बाण ने भी कादम्बरी में कहा है-"जिस प्रकार निर्मल स्फटिकमरिण में चन्द्रमा की किरणों का प्रवेश होता है, उसी तरह निर्मल चित्त में उपदेश प्रवेश करता है तथा जैसे कानों में भरा निर्मल जल भी महान् पीड़ा को उत्पन्न करने वाला होता है, वैसे ही गुरुओं के वचन भी अभव्य जीव को क्लेश उत्पन्न करने वाले होते हैं।" अतएव वीतराग विभु दुराग्रही पुरुषों के उपदेष्टा नहीं हो सकते।
विश्वकर्तृत्व-मीमांसा-४१