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कहा गया है कि 'वह विश्व-जगत् का कर्ता है, वह एक है, वह नित्य है इत्यादि'। श्लोक में युष्मत् (त्वम् ) शब्द के प्रयोग से 'परम दयालु-परम कृपालु' होने के कारण पक्षपात की भावना रहित श्रीजिनेन्द्र-वीतराग भगवान का अद्वितीय हितोपदेशकत्व ध्वनित होता है ।
तात्पर्य यह है कि यद्यपि भगवान सामान्यरूप से सम्पूर्ण प्राणियों को हितोपदेश करते हैं, किन्तु वह उपदेश पूर्वजन्म में उपार्जित किये हुए निकाचित (जिस कर्म की उदीरणा, संक्रमण, संकर्षण, उत्कर्षण और अपकर्षण रूप अवस्थाएँ नहीं हो सके, उसे निकाचित कर्म कहते हैं ।) पापकर्मों से मलिन आत्मा वाले प्राणियों को सुखद नहीं होता क्योंकि, इस प्रकार के पापी जीव अपुनर्बन्धक (जो जीव तीव्र भावों से पाप नहीं करता तथा जिसकी मुक्ति अर्धपुद्गलपरावर्त में हो जाती है, उसे अपुनर्बन्धक कहते हैं। अर्थात्-जो जीव मिथ्यात्व को छोड़ने के लिए तत्पर और सम्यक्त्व की प्राप्ति के अभिमुख होता है, उसे अपुनर्बन्धक कहते हैं। इनके कृपणता, लोभ, याञ्चा, दीनता, मात्सर्य, भय, माया और मूर्खता इन भवानन्दी दोषों के नष्ट होने पर शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान औदार्य, दाक्षिण्य इत्यादि गुणों में वृद्धि
विश्वकर्तृत्व-मीमांसा-४०