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उत्पन्न होगा। इसलिए वह कृतक-अपने स्वरूप की सिद्धि में दूसरे की अपेक्षा रखने वाला हो जायेगा तथा ईश्वर का जो कोई दूसरा कर्त्ता मानोगे, वह नित्य है या अनित्य ? यदि नित्य है तो एक ही ईश्वर को नित्य क्यों नहीं मान लेते ? यदि ईश्वर का कर्ता अनित्य है, तो उस अनित्य कर्ता का कोई दूसरा उत्पादक होना चाहिए। फिर वह कर्ता नित्य होगा या अनित्य ? इस प्रकार अनवस्था दोष उत्पन्न होगा।
'इमाकुहे वक्ति विडम्बनाः' इस प्रकार की कुत्सित आग्रहरूप विडम्बनाएँ विचाररहित होने के कारण तिरस्कार के योग्य हैं। अप्रामाणिक लोगों की ये विडम्बनाएँ अपने दोषों को छिपाने के लिए ही हैं। ऐसे लोगों के उपदेष्टा, हे वीतराग विभो! आप नहीं हो सकते।
न्याय-वैशेषिकों की मान्यता को विडम्बना सिद्ध करने के लिए ही उक्त स्तुतिश्लोक में न्याय-वैशेषिकों द्वारा अभीष्ट ईश्वर के प्रत्येक विशेषण के साथ 'तत्' शब्द का प्रयोग किया गया है। जिस प्रकार वक्ता लोग किसी निन्दनीय पुरुष को कहते हैं कि 'वह मूर्ख है, वह पापी है, वह दरिद्र है, इत्यादि' उसी प्रकार यहाँ भी ईश्वर के लिए
विश्वकर्तृत्व-मीमांसा-३६