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इस कथन से सर्वज्ञविभु की असमर्थता प्रगट नहीं होती क्योंकि सामान्य सर्पों से इसे हुए प्राणियों को जिलाने वाला विषवैद्य यदि कालसर्प से डसे हुए प्राणी को न जीवित रख सके तो यह वैद्य का दोष नहीं है । यह दोष कालसर्प से इसे हुए मनुष्य का ही है क्योंकि कालसर्प के विष पर मन्त्र तथा यन्त्रादिक भी प्रभाव नहीं डाल सकते । इसी प्रकार यदि सर्वज्ञविभु प्रभव्यों को उपदेशित न कर सकें तो यह दोष सर्वज्ञविभु का नहीं है । यह दोष भव्यों का है, क्योंकि तीव्र कषाय से मलिन भव्यों की आत्मा पर उपदेश का कुछ भी असर नहीं होता । सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित करने वाली सूर्य की किरणें यदि उल्लुनों के प्रकाश का कारण नहीं हो सके तो यह किरणों का दोष नहीं है ।
तार्किक शिरोमणि पूज्य श्री सिद्धसेनसूरि दिवाकर ने भी कहा है कि - " हे लोकबन्धो ! श्राप सद्धर्मबीज बोने में सम्पूर्णपने दक्ष हैं, फिर भी आपका सदुपदेश बहुत से लोगों को लागू नहीं होता, इसमें कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि अन्धकार में फिरने वाले उल्लू आदि पक्षियों को सूर्य की किरणें भौंरों के परों के समान काली ही दिखाई पड़ती हैं ।"
विश्वक' त्वमीमांसा - ४२