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इस वाक्य में ईश्वररूप धर्मी प्रतीत है, अथवा अप्रतीत ? यदि धर्मी अप्रतीत है तो हेतु आश्रयासिद्ध होगा अर्थात् जब धर्मी ही अप्रतीत है तब अशरीरत्व हेतु कहाँ रहेगा ? यदि कहो कि उक्त अनुमान में ईश्वर प्रतीत है, तो जिस प्रमाण से ईश्वर प्रतीत है, उसी प्रमाण से यह क्यों नहीं मानते कि ईश्वर स्वयं उत्पन्न किये हुए शरीर को ही धारण करता है। अर्थात्-ईश्वर को प्रतीत (जाना हमा) मानने से क्या ऐसा प्रतीत नहीं होता कि ईश्वर ने अपना शरीर स्वयं बनाया है, और वह विश्व-जगत् को बनाने में समर्थ है। इसलिए ईश्वर को शरीररहित नहीं कह सकते। अतएव ईश्वर के कर्तृत्व में हमारा दिया हुआ कार्यत्व हेतु प्रसिद्ध-विरुद्ध इत्यादि दोषों से रहित होने के कारण निर्दोष है। वह पुरुष विशेष एक अर्थात् अद्वितीय है, क्योंकि यदि बहुत से ईश्वरों को संसार का कर्ता स्वाकार किया जाए तो एक-दूसरे की इच्छा में विरोध उत्पन्न होने के कारण एक वस्तु के कारण एक वस्तु का अन्य रूप में निर्माण होने से संसार में असमञ्जस उत्पन्न हो जायेगा।
ईश्वर सर्वव्यापी (सर्वग) है। यदि ईश्वर को नियत प्रदेश में ही व्याप्त माना जाय तो अनियतस्थानों के तीनों
विश्वकर्तृत्व-मीमांसा-३७