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से प्रगटी है। यह भावना क्लिष्टकल्पना ही है कि एक ईश्वर जैसी किसी चीज ने औजारों, उपकरणों या सहायकों के बिना यह दुनिया रच दी। यह तो अनुभवविरुद्ध है।
तर्क के लिए यदि मान लें कि ऐसा ईश्वर है तो आप जो विशेषण उसके लिए प्रयुक्त करते हैं, वे कभी संगत नहीं बैठते। आप कहते हैं कि वह अनादि अनन्त, नित्य है, किन्तु जब वह निःशरीर है तो बुद्धि और चेतना स्वरूप हुआ। उसका वह स्वरूप विश्व के विभिन्न प्रकार के पदार्थों की रचना के लिए विभिन्न रूपों में बदलता रहा होगा। यदि उसकी बुद्धि, चेतना या ज्ञान में कोई परिवर्तन नहीं होता तो सृष्टि और विनाश के इतने विभिन्न रूप क्यों है ? सृष्टि और विनाश एक अपरिवर्तनीय बुद्धि और ज्ञान के परिणाम नहीं हो सकते फिर, ज्ञान का स्वभाव ही बदलना है, यदि हम उस ज्ञान से तात्पर्य लें जो मानवीय सन्दर्भो में प्रयुक्त होता है (और उसके अलावा अन्य कोई सन्दर्भ ज्ञान के ज्ञात ही नहीं हैं)।
आप कहते हैं कि ईश्वर सर्वज्ञ है पर यह कैसे माना जाये कि उसे कोई ज्ञान भी हो सकता है क्योंकि उसके
विश्वकर्तृत्व-मीमांसा-३२