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हां, तो वह नैतिक व्यवस्था में बद्ध है और स्वयं स्वतन्त्र नहीं है। तो क्या उसने करुणा के कारण सृष्टि की है ? यदि हां तो फिर विश्व में केवल प्रसन्नता और अच्छाई होनी चाहिए और कुछ नहीं। यदि आप यह कहें कि मनुष्य जो दुःख भोगते हैं वह तो उनके पूर्व कर्मों के कारण है और सुख भी कर्मों के कारण है।
यदि पूर्व कर्मों-जो भाग्य या नियति के रूप में आपके द्वारा माने गए हैं-के कारण मनुष्य कुकर्म करने को प्रेरित होता है, तो उस नियति यानी अदृष्ट को ही ईश्वर की जगह सृष्टिकर्ता क्यों न मान लिया जाए ?
यदि ईश्वर ने खेल-खेल में सृष्टि बना दी तो वह शिशु-बालक हुआ, जिसने निरुद्देश्य यह कार्य किया। यदि उसने ऐसा इस उद्देश्य से किया है कि कुछ को दण्ड और कुछ को पुरस्कार मिल सके तो फिर वह पक्षपाती हुप्रा; कुछ के लिए, रागी और दूसरों के लिए द्वषी।
__ यदि सृष्टि रचना स्वभाव ही है और उससे सृष्टि प्रगटी है तो फिर कर्ता मानने की आवश्यकता हो क्या है ? यही क्यों न मान लें कि सृष्टि स्वयं अपने स्वभाव
विश्वकर्तृत्व-मीमांसा-३१