SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाण -नय-तत्वालोक ] फल से 'प्रमाणफलत्वान्यथानुपपत्ति' रूप हेतु में व्यभिचार आता है, ऐसा नहीं सोचना चाहिए || क्योंकि परम्परा फल भी प्रमाता के साथ तादात्म्य सम्बन्ध होने के कारण प्रमाण से अभिन्न है || (१०२) क्योंकि प्रमाण रूप से परिणत आत्मा का ही फल रूप से परिणमन होना, अनुभव सिद्ध है । जो जानता है वही वस्तु को ग्रहण करता है, वही त्यागता है, वही उपेक्षा करता है, ऐसा सभी व्यवहार कुशल लोगों को अनुभव होता है । यदि ऐसा न माना जाय तो स्व और पर के प्रमाण के फल की व्यवस्था नष्ट हो जायगी || विवेचन – प्रमाण का फल, प्रमाण से कथंचित् भिन्न-भिन्न है, क्योंकि वह प्रमाण का फल है । जो प्रमाण से भिन्न-भिन्न नहीं होता वह प्रमाण का फल नहीं होता, जैसे घट आदि । इस प्रकार के अनुमान प्रयोग में दूसरों ने प्रमाण के परम्परा - फल से व्यभिचार दिया । उन्होंने कहा - 'परम्परा फल भिन्न- अभिन्न नहीं है फिर भी वह प्रमाण का फल है, अतः आपका हेतु सदोष है।' इसका उत्तर यहाँ यह दिया गया है कि परम्परा फल भी सर्वथा भिन्न नहीं है किन्तु कथंचित् भिन्न भिन्न हैं । अतएव हमारा हेतु सदोष नहीं है । शका - उपादान - बुद्धि आदि परम्परा फल अभिन्न कैसे है ? समाधान तादात्म्य होन से | - एक प्रमाता में प्रमाण और परम्परा फल का
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy