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[ षष्ठ परिच्छेद
अर्थ-प्रमाण का फल प्रमाण से कथंचित् भिन्न है, कथंचित अभिन्न है, अन्यथा प्रमाण-फलपन नहीं बन सकता ।
विवेचन-प्रमाण से प्रमाण का फल सर्वथा भिन्न माना जाय तो दोष आता है और सर्वथा अभिन्न माना जाय तब भी दोष आता है, इसलिए कथंचित् भिन्न-अभिन्न मानना ही उचित है ।
फल, प्रमाण से सर्वथा भिन्न माना जाय तो दोनों में कुछ भी सम्बन्ध न होगा, फिर 'इस प्रमाण का यह पल है' ऐसीव्यवस्था नहीं होगी और सर्वथा अभिन्न माना जाय तो दोनों एक ही वस्तु हो जाएँगे-प्रमाण और फल अलग-अलग दो वस्तुएँ सिद्ध न हो सकेंगी।
दोष-परिहार उपादानबुद्धयादिना प्रमाणाद् भिन्नेन व्यवहितफलेन हेतोर्व्यभिचार इति न विभावनीयम् ॥ ७ ॥
तस्यैकप्रमातृतादात्म्येन प्रमाणादभेदव्यवस्थितेः॥८॥
प्रमाणतया परिणतस्यैवात्मनः फलतया परिणतिप्रतीतेः ॥ ६॥
__यः प्रमिमीते स एवोपादत्ते परित्यजत्युपेक्षते चेति सर्वसंव्यवहारिभिरस्खलितमनुभवात् ॥१०॥
इतरथा स्वपरयोः प्रमाणफलव्यवस्थाविप्लवः प्रसज्येत ॥११॥
अर्थ-उपादान बुद्धि आदि प्रमाण से सर्वथा भिन्न परम्परा