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________________ (१०३) [ षष्ठ परिच्छेद शंका-एक प्रमाता में दोनों का तादात्म्य कैसे है ? समाधान-जिस आत्मा में प्रमाण होता है उसी में उसका फल होता है अर्थात् जो आत्मा वस्तु को जानता है उसी आत्मा में ग्रहण आदि करने की बुद्धि उत्पन्न होती है । एक के जानने से दूसरे में ग्रहण या त्याग करने की भावना उत्पन्न नहीं होती, इससे प्रमाण और फल का एक ही प्रमाता में तादात्म्य सिद्ध होता है। शंका-ऐसा न माने तो हानि क्या है ? समाधान-प्रथम तो यह कि सभी लोगों का ऐसा ही अनुभव होता है, अत: ऐमा न मानने से अनुभव विरोध होगा। इसके अतिरिक्त ऐसा न मानने से प्रमाण-फल की व्यवस्था ही नष्ट हो जायगी। देवदत्त के जानने से जिनदत्त उस वस्तु का ग्रहण कर लेगा और जिनदत्त द्वारा जानने से देवदत्त उसका त्याग कर देगा। अर्थात् एक को प्रमाण होगा और दूसरे को इसका फल मिल जायगा। इस अव्यवस्था से बचने के लिए प्रमाण के परम्परा फल को भी प्रमाण से कथंचित् अभिन्न ही मानना चाहिए और ऐसा मान लेने से हेतु में व्यभिचार भी नहीं पाता। - पुनः दोष-परिहार अज्ञाननिवृत्तिरूपेण प्रमाणादभिन्नेन साक्षात्फलेन साधनस्यानेकान्त इति नाशङ्कनीयम् ॥ कथञ्चित्तस्यापि प्रमाणाद् भेदेन व्यवस्थानात् ॥१३॥ साध्यसाधनभावन प्रमाणफलयोःप्रतीयमानत्वात् ।१४।
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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