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________________ सप्तभंगी. - (३१) अयक्तव्योभयरूपादिभेदो भवति सप्तभंगी प्रतिपाद्यते इत्यर्थः ओष्टग्रीवा कपोलकुक्षिवुध्नादिभिः स्वपर्यायैः सद्भावेनार्पितः विशेषतः कुंभ कुंभो भरायते सन् घट इति प्रथमभंगो भवति एवं जीवः स्त्रपर्यायैः ज्ञानादिभिः - र्पितः सन् जीवः अर्थ - जैसे - स्वपर्याय से सद्भाव पर पर्याय से असद्भाव, उभय पर्याय से सद्सद्भाव इस रूपको स्यादुपदपूर्वक स्थापना करने से कुंभ, अकुंभ, कुंभाकुंभ, अवक्तव्य, कुंभ अवक्तव्य, अकुंभयवक्तव्य, कुंभाकुंभ अवक्तव्य इस तरह सप्तभंगी होती है. प्रथम भंग लक्षणं- जैसे- ओपग्रीवादि स्त्रपर्याय से अस्तित्वेन अर्पित जो कुंभ है वह अस्तिकुंभ इसी तरह ज्ञानादि स्वपर्याय सहित को स्यात् अस्ति जीव कहे यह प्रथम भंग. विवेचन - - यह सप्तभंगी स्वद्रव्यकी अपेक्षा से है परकी अपेक्षा से नहीं. जैसे- स्वधर्म विषयी परिणमन यह अस्ति धर्म है और पर धर्म का जो असद्भाव यह नास्ति धर्म है. उसको स्थात् पदपूर्वक प्ररूपणा करने से सप्तभंगी होती है. (१) स्यात् अस्ति घटः (२) स्यात् नास्ति घटः (३) स्यात् अवक्तव्य घट : ( ४ ) स्यात अस्ति नास्ति घटः (५) स्यात् अस्ति अवक्तव्य घटः (६) स्यात् नास्ति वक्तव्य घटः (७) स्यात् अस्तिनास्ति वक्तव्य घटः इन सात भागों में प्रथम के तीन भंग सकलादेशी कहलाते हैं और शेष चार भांगे विकलादेशी हैं. अब प्रत्येक भंगको दृष्टांतद्वारा समझाते है. यथा - ग्रीवा कपोल कुत्ति आदि खपर्यायों से घट है
SR No.022425
Book TitleNaychakra Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghraj Munot
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1930
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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