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________________ (३२) नयचक्रसार हि० प्र० उस में स्वपर्यायकी अस्तिता अर्पण करने से वह घट घट धर्म से अस्ति है परन्तु नास्ति धर्मकी अस्ति सापेक्षता के लिये स्यात् पद पूर्वकत्व कहना इस लिये स्यात् अस्ति घटः यह प्रथम भंग इसी तरह जीवके ज्ञानादि गुण पर्याय नित्यत्वादि स्वभावमयी होने से स्यात् अस्ति जीवः एवं “ सर्वत्र भावनीयम् ” यद्यपि जीव और अजीव द्रव्यकी नित्यता सरीखी भासमान होती है. परन्तु वे दोनो एक नहीं है और जीव सब एकजातीय द्रव्य है. परन्तु एक जीव में जैसा ज्ञानादि गुण है वैसा दूसरे में नहीं है. सब द्रव्यत्व धर्म से अस्ति है, एवं स्यात् अस्ति जीवः इति प्रथम मंगः । ___ तथा पटादिगतैस्त्वक्त्राणादिभिः परपर्यायैरसद्भावेनापि त: अविशेषतः अकुंभो भवति सर्वस्यापि घटस्य परपर्यायै रसत्व विवक्षायामसन् घटः एवं जीवोऽपि मूर्तत्वादि पर्यायैः असन् जीवः इति द्वितियो भङ्गः । अर्थ--त्वक् त्राणादि जो पटकी पर्याय है उस परपर्याय की अपेक्षा से घट असत् है-अकुंभ है. जैसे-परपर्यायकी अपेक्षा से घट असत् है वैसे ही जीव भी मूर्त्तत्वादि पर्यायकी अपेक्षा से असत् है इति स्यात् नास्ति जीवः । यह द्वितीय भंग। - विवेचन--पट में स्थित जो त्वक् चर्म, त्राणादि-रक्षणादि पर्याय हैं वे घट में नहीं है. किन्तु पट में है. घट में इन पर्यायों की नास्ति है अर्थात् घट में उन पर्यायों का असद्भाव है इस लिये परपर्यायकी अपेक्षा से घट नास्ति है. इसी तरह जीव में भी
SR No.022425
Book TitleNaychakra Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghraj Munot
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1930
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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