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षट्द्रव्य में काल का लक्षण.
(१९)
पंचास्तिकायानां परत्वापरत्वे नवपुराणादि लिन व्यक्तवृत्ति वर्तना रुपपर्यायः कालः, अस्य चाप्रदेशिकत्वेन आस्तिका यात्वाभावः । पश्चास्तिकायान्तर्भूतपर्यायरुपतैवास्य । एते पञ्श्चास्तिकायाः, तत्र धर्माधर्मौ लोकममाणासंख्यप्रदेशिको, लोकप्रमाण प्रदेश एव एकजीवः । एते जीवाप्यनन्ताः, आकाशोहि अनन्त प्रदेश प्रमाणः, पुद्गल परमाणु स्वयं एकोऽप्य अनेक प्रदेश बंध हेतुभूत द्रव्ययुक्तत्वात् अस्तिकायः, कालस्य उपचारेण भिन्न द्रव्यता ऊक्ता साच व्यवहार नयापेक्षया आदित्यगति परिच्छेद परिणामः कालः समय क्षेत्र एव एष व्यवहारकालः समयावलिकादिरूप इति ।।
अर्थ - पंचास्तिकायों में पूर्वत्व परत्व - पहला पीछे तथा पुगल स्कंधकी नव पुरानरूप स्थिति लक्षण वर्तना पर्याय को काल कहते हैं. प्रदेशों के अभाव होनेसे इसको अस्तिकाय नहीं कहा. यह काल द्रव्य पंचास्तिकाय में अन्तर्भूत पर्यायरूप है. और शेष ये पांच अस्तिकाय हैं - ( १ ) धर्मास्तिकाय (२) अधर्मास्तिकाय लोक प्रमाण असंख्य प्रदेशी हैं. (३) लोकाकाशप्रमाण प्रदेशवाला एक जीव है. एसे जीव अनन्त हैं. (४) आकाश अनन्त प्रदेश प्रमाण है. (५) पुद्गलपरमाणु स्वयम् एक होनेपर भी अनेक प्रदेश बन्ध हेतुभूत द्रव्ययोग्यता होनेसे अस्तिकाय कहा है. कालको उप चार मात्र से ही भिन्न द्रव्य कहा है. व्यवहार नयकी अपेक्षा से सूर्यकी गति के परिज्ञान से जो श्रावलिकादिका मान है उसका व्यवहार केवल मनुष्य क्षेत्रमें ही है.