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________________ (१८) नयचक्रसार हि० प्र० . चेतना लक्षणो जीवः, चेतना च ज्ञानदर्शनोपयोगी ... अनन्तपर्याय पारिणामिक कर्तृत्व भोक्तृत्वादि लक्षणो जीवास्तिकायः अर्थ-चेतनालक्षण है जिसका वह जीव है और ज्ञानदर्शन की उपयोगीता हो उसको चेतना कहते हैं. पुनः अनन्त पर्याय. परिणामी, कर्ता, भोक्तादि अनन्त शक्ति का पात्र ऐसा लक्षण हो उसको जीवास्तिकाय कहते हैं. . . विवेचन-अब जीव द्रव्य का स्वरुप कहते हैं. चेतना बोध शक्ति है जिसमें उसको जीव कहते हैं. स्वपरिणमन और परपरिणमन सब को जाने वह जीव तथा सर्व द्रव्य हैं.वे अनन्त सामान्य स्वभाव और अनन्त विशेष स्वभाव वाले हैं. उसमें सर्व द्रव्य के विशेष स्वभाव के अवबोध को ज्ञान कहते हैं और सामान्य स्वभाव के अवबोध को दर्शन कहते हैं ऐसे ज्ञान दर्शन का उपयोगी और जो अनन्त पर्याय उसका परिणामिक कर्ता, भोक्तादि अनन्त शक्तिका पात्र हैं उसको जीव कहते हैं. उक्तं च-नाणं च दंसणं चेव चरितं च तवो तहा; वीरियं उवोगो अ एवं जीवस्स लक्खणं ( उत्तराध्ययन वचनात् ) चेतना लक्षण, ज्ञान, दर्शन चारित्र सुख वीर्यादि अनन्तगुण का पात्र, स्वस्वरुप भोगी और अनवच्छिन्न जो स्वावस्था उसका भोक्ता, अनन्त स्वगुण जो स्व स्व कार्य शक्ति उसका कर्ता, परभाव का अकर्ता, अभोक्ता, स्वक्षेत्रव्यापी, अनन्त, आत्मसत्ता प्राहक, व्यापक और आनन्दरुप हो उसको जीव समझना.
SR No.022425
Book TitleNaychakra Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghraj Munot
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1930
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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