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________________ (२०) मयचक्रसार, हि० अ. विवेचन--अब कालका लक्षण कहते हैं. जो पंचास्तिकाय में परत्व, अपरत्व-जैसे पुद्गल द्रव्य में पहला, पिछला रुप व्यवहारका हेतु तथा नवीनता, जीर्णता करने में प्रगट है वृत्ति जिसकी उस वर्तनारुप पर्यायको काल कहते हैं. अप्रदेशी होने से इसको अस्तिकाय नहीं कहा. इसका पंचास्तिकायमें अन्त रभूत पर्यायरुप परिणमन है, तत्त्वार्थ वृत्ति में इसको धर्मास्तिकायादि का पर्याय कहा है. ......पांच अस्तिकाय है. (१) धर्मास्तिकाय एक द्रव्य है असं ख्यात प्रदेशी है और लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं. (२) एवं अधामास्तिकाय (३) जीव द्रव्य भी लोक प्रमाण असंख्यात प्रदेशी है 'परन्तु अपनी अवगाहना पने व्यापक है. वे जीव अनन्त हैं और अकृत, शास्वतं, अखंड द्रव्य है. सत् चिदानंदमय है परन्तु परपरिणामिक, पुद्गलग्राही और पुद्गलभोगी होने से प्रति समय नये कर्म बांधता हुवा संसारी हो गया. वही जिस समय स्वरूप ग्राही, स्वरूप भोगी होगा उस समय सब कमोंसे रहित होकर परमज्ञान मयी, परम दर्शनमयी, परमानन्दमयी, सिद्ध, बुद्ध, अनाहारी, अशरीरी, अयोगी, अलेसी, एकान्तिक, निःप्रयासी, अविनाशी, खरुप सुखका भोगी शुद्ध सिद्ध होगा इस वास्ते हे चेतन ! ! ! यह परभाव, अभोग्य, सब जगतकी उच्छिष्ट एंठ तेरे ताज्य है. तूं स्वभावभोगीताका रसिक होकर स्व स्वरुप प्रकाश और अपने आनन्द को प्रगट करने के लिये निर्मलता को प्राप्त कर. (४) आकाश लोकालोक प्रमाण एक द्रव्य है. अनन्त
SR No.022425
Book TitleNaychakra Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghraj Munot
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1930
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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