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नयचक्रसार, हि० अ० अनायास, अविनासी, सम्पूर्ण आत्मशक्ति प्रगटरूप अनन्त सुखका अनुभवकर्ता है । और उनके प्रति प्रदेश में अव्यावाद सुख अनन्त है। उक्तं च उववाईसूत्रे " सिद्धस्स सुहोरासि ॥ सब्बद्धा पिण्डियं जह वजा ॥ सोणंतवग्गोभइयो ॥ सव्वागासे न माइजा ॥ १ ॥ इति वचनात् परमानन्द सुखके भोक्ता हैं. सादि अनन्तकाल पर्यत परमात्मपने रहते हैं. और यही कार्य सब भव्य प्राणीयों को करने योग्य हैं. इसकी पुष्टी का कारण श्रुताभ्यास है इसीके लिये यह द्रव्यानुयोग नय स्वरूप को किंचित कहा है. यह जान पना जिस गुरूकी परम्परा से मेंने प्राप्त किया है उन गुरूवों की परम्पराको स्मर्ण करता हूं।
काव्य. गच्छे श्री कोटिकाख्ये विशदखरतरे ज्ञानपात्रा महान्ता, सूरि श्री जैनचन्द्राः गुरूतरगणभृतशिष्यमुखा विनीताः ॥ श्रीमत्पुण्यात्मप्रधानाः सुमतिजलनिधि पाठकाः साधुरंगा: तच्छिष्या, पाठकेन्द्राः श्रुतरसरसिका राजसारा मुनीन्द्राः॥१॥ ___ तञ्चरणांवुजसेवालीनाः श्रीज्ञानधर्मधराः ॥ तत्शिष्यपाठको. त्तमदीपचन्द्राः श्रुतरसझाः ॥ २ ॥ नयचक्रलेशमेतत्तेषां शिष्येण देवचन्द्रेण स्वपरावबोधनार्थ कृतं सदभ्यासवृद्धयर्थ ॥ ३ ॥ शोधयन्तु सुधियः कृपापराः, शुद्धतत्वरसिकाश्च पठंतु ॥ साधनेन कृत. सिद्धिसत्सुखाः, परममंगलभावमश्नुते ॥ ४ ॥ इति श्री नयचक्र विवरणं समाप्तम् ॥