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________________ आवर्जिकरण. (१३९) आत्मप्रदेशों में रहे हुवे कर्मदल उनको पहले चलयमान करते हैं. पीछे उदीरणा करते हैं. और फिर भोगवकर निर्जरते हैं. केवली का जब तेरवे गुणस्थनक में अल्पायु रहता है उस समय आवर्जिकरण करते हैं. यथा-प्रतिसमय असंख्यातगुनी निर्जरा करने योग्य कर्मदल को आत्मवीर्य से चलायमान करे ऐसा जो वीर्य का प्रवर्तन उसको श्रावर्जिकरण कहते हैं। इसतरह भावर्जिकरणकरता हुवा यदि तीन कर्मो का दल अधिक रहे शो समुद्घात करते हैं. अन्यथा समुद्घात नहीं करते. किन्तु आवर्जिकरण सब केवली करते हैं। तेरवे गुणस्थानक के अन्त में योग निरोधकरके अयोगी, अशरीरी, अनाहारी, अप्रकंप, घनीकृत आत्मप्रदेशी होकर पांच लघु अक्षर ( अइउऋलू ) कालमान अयोगी नामक चवदमें गुणस्थानक पर ठहर कर शेष सत्तागत प्रकृती जो विद्यमान अविद्यमान है उस को स्तिवुक संक्रम से खपाके समस्त पुद्गल संग रहित होकर तत् समय आकाश प्रदेश की समश्रेणी अर्थात् दूसरे प्रदेश की श्रेणी को अस्पर्श करता हुवा लोकान्त-लोकके आन्तिम भागमें सिद्ध, कृतकृत, सम्पूर्णगुण, प्राग्भावी, पूर्णपरमात्मा, परमानंदी, अनन्तकेवलमयी, अनन्तदर्शनमयी, अरूपी सिद्धावस्था को प्राप्त होते हैं । उक्तं च उत्तराध्ययन सूत्रे " कहिं पड़िहयासिद्धा । कहिं सिद्धा पयट्ठिया ॥ कहिं वोदि चइत्ताणं ॥ कत्थगंतूण सिज्मई ॥ अलाए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइडिया ॥ इहवोदि चइत्ताणं तत्थगंतूण सिज्झई । इत्यादि वे सिद्ध एकान्तिक, प्रात्यतिक, अनाबाध, निरूपाधि, निरूपचरित,
SR No.022425
Book TitleNaychakra Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghraj Munot
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1930
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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