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________________ नयचक्रसार हि. अ. अन्य दर्शनीय प्रमाण मानते हैं वह असत्य है जैसे छे इन्द्रिय सन्निकर्ष से उत्पन्न हुवा जो ज्ञान उसको नयायिक प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं. और परब्रह्म को इंद्रिय रहित मानते हैं. ज्ञानानन्दमयी मानते हैं. तब इन्द्रिय रहित ज्ञान है वह अप्रमाण हुवा इत्यादि अनेक युक्ती है इसवास्ते वह अप्रमाण है. और चारवाक मतवाले केवल एक इन्द्रिय प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते है. इस तरह अन्य दर्शनीयों के अनेक विकल्प को हटाके सर्वनय, निक्षेप, सप्तभंगी, स्याद्वादयुक्त जीव अजीव वस्तु का सम्यग्ज्ञान जिसमें हो उस को सम्यग्ज्ञानी कहना यह ज्ञान का स्वरूप कहा । तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं । यथार्थहयोपादेयपरिक्षायुक्तज्ञानं सम्यग्ज्ञानं । स्वरूपरमणपरपरित्यागरूपं चरित्रं । एत द्रत्नत्रयीरूपमोक्षमार्गसाधनात्साध्यसिद्धिः इत्यनेनात्मनः स्वीयं स्वरूपं सम्यग्ज्ञानं ज्ञानप्रकर्षएवात्मलाभः ज्ञानदर्शनोपयोग लक्षण एवात्मा छद्मस्थानां च प्रथमं दर्शनोपयोगः केवलीनां प्रथम ज्ञानोपयोगः पश्चादर्शनोपयोगः सहकारीकतृत्वप्रयोगात् उपयोगसहकारेणैव शेषगुणानां प्रवृत्यभ्युपगमात् इत्येवं स्वतत्वज्ञानकरणे स्वरूपोपादानं तथा स्वरूपरमणध्यान कत्वेनैव सिद्धिः ॥ अर्थ-श्री वीतराग के आगम से वस्तुस्वरूप को प्राप्त कर के उसके हेयोपादेय का निरधार करना उसको सम्यग्दर्शन कहते है. तत्त्वार्थसूत्र में कहा है-" तत्त्वार्थश्रद्वानं सम्यग्दर्शनं " तथा उत्तगध्यनसूत्रमें "जीवाजीवाय बंधो ॥ पुन्नं पावासवोतहा ॥
SR No.022425
Book TitleNaychakra Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghraj Munot
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1930
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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