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सम्यक् दर्शन.
(१३७) -संवरो निझरा मुक्खो ।। संति एतिहिया नव ॥ १ ॥ तिहियाणं तु भावाणं सदभावे ऊवएसण ॥ भावेण सद्दहंतस्स ॥ समभं तिवियाहियं ।। २ ।। इत्यादि दशरूचीसे सब तत्त्वो को जानना, जीवादि पदार्थ की श्रद्धा-निरधार को सम्यग्दर्शन करते हैं. सम्यग्दर्शन धर्म का मूल है, तथा हेय छोड़ने योग्य है. उपादेय ग्रहण करने योग्य है. ऐसी परिक्षा सहित ज्ञान को सम्यगज्ञान कहते है, जिसमें हेवोपादेय संकोच अकरण बुद्धि नहीं है परन्तु उपादेय के उपयोग से ऐसी चिन्तवना हो कि अब कब करूंगा ? इस के विना कैसे काम चलेगा? ऐसी बुद्धि नहीं है उस को संवेदन ज्ञान कहते हैं, इस से संवर हो ऐसा निश्चय नहीं है।
स्वरूपरमण, परभाव रागद्वेष विभावादि के त्याग को चारित्र कहते हैं. यह रत्नत्रयीरूप परिणाम मोक्षमार्ग है । इस के साधन करने से साध्य जो परम अव्याबाधपद की सिद्धि प्राप्त होती है. प्रात्मा का स्व स्वरूप जो यथार्थ ज्ञान है. तथा चेतना लक्षण वही जीवत्वपना है, ज्ञान का प्रकर्ष बहुलतापन वही आत्मा को मिलता है, ज्ञानदर्शन उपयोग लक्षण आत्मा है. छद्मस्थ को पहले दर्शन उपयोग है और पीछे ज्ञानोपयोग है, तथा केवली को पहले शानोपयोग है और पीछे दर्शनोपयोग है. जो जीव नवीन गुण प्राप्त करता है उस का केवली को ज्ञानोपयोग उसी समय होता है पीछे सहकारीकतृत्व ( सहायक ) प्रयोग होनेसे दर्शन उपयोग होता है। उपयोग सहकारणैव-उपयोग की मददसे शेष गुणों की प्रवृत्ति का ज्ञान होता है. अर्थात् विशेष धर्म है