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________________ [१२] छाया-नतैः यत् नम्यते ध्यायते ध्यातैः अनवरतम् । स्तूयमानैः स्तूयते देहस्थं किमपि तत् मनुत ।। १०३॥ अर्थ-जो नमस्कार करने योग्य इन्द्रादि से हमेशा नमस्कार किया जाता है और ध्यान करने योग्य तथा स्तुति करने योग्य तीर्थकरादि से ध्यान किया जाता है तथा स्तुति किया जाता है । ऐसे शरीर में स्थित उस अपूर्व आत्मा के स्वरूप को हे भव्य जीवो! तुम भली भांति जानो ॥ १०३ ॥ गाथा- अरुहा सिद्धायरिया उज्माया साहु पंच परमेट्ठी। तेवि हु चिट्ठहि ादे तम्हा आदा हु मे सरणं ॥ १०४ ॥ __ छाया- अर्हन्तः सिद्धा आचार्या उपाध्याया साधवः पञ्च परमेष्ठिनः । तेऽपि स्फुटं तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मादात्मा हि मेशरणम् ॥ १०४ ॥ अर्थ- अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांच परमेष्ठी आत्मा में स्थित हैं अर्थात् ये आत्मा की ही अवस्था हैं । इसलिये आचार्य कहते हैं कि ऐसी आत्मा ही निश्चय से मेरे शरणभूत है ॥ १०४ ॥ गाथा-सम्मत्तं सगणाणं सच्चारित्तं हि सत्तवं चेव। ... चउरो चिट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ॥ १०५॥ छाया-सम्यक्त्वं सज्ज्ञानं सच्चारित्र हि सत्तपश्चैव । ___चत्वारः तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मादात्मा फुट मे शरणम् ॥ १०५॥ अर्थ- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और समीचीन तप ये चारों आरा धना आत्मा में स्थित हैं अर्थात् आत्मा की ही अवस्था हैं । इस लिये . आचार्य कहते हैं कि ऐसी आत्मा ही मेरे शरणभूत है ॥ १०५॥ .... गाथा- एवं जिणपण्णत्तं मोक्खस्स य पाहुडं सुभत्तीए । .. जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ सासयं सोक्खं ॥ १०६॥ छाया-एवं जिनप्रज्ञप्तम् मोक्षस्य च प्राभृतं सुभक्त्या । यः पठति शृणोति भावयति सः प्राप्नोति शाश्वतं सौख्यम् ॥१०६ ।। अर्थ- इस प्रकार जिन भगवान के द्वारा कहे हुए मोक्षप्राभृत नामक शास्त्र को जो जीव अत्यन्त भक्तिपूर्वक पढ़ता है, सुनता है और बार २ चिन्तवन करता है वह अविनाशी सुख अर्थात् मोक्ष को पाता है ॥ १०६॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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