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________________ (७) लिंगपाहुड़ गाथा-काऊण णमोकारं अरहताणं तहेवसिद्धाणं । वोच्छामि समणलिंग पाहुडसत्थं समासेण ॥१॥ छाया-कृत्वा नमस्कारं अर्हतां तथैव सिद्धानाम् । वक्ष्यामि श्रमणलिंगं प्राभृतशास्त्रं समासेन ॥१॥ अर्थ-आचार्य कहते हैं कि मैं अर्हन्तों और सिद्धों को नमस्कार करके मुनियों के लिंग का कथन करने वाले प्राभृत शास्त्र को संक्षेप में कहूंगा ॥१॥ गाथा-धम्मेण हवइ लिंगंण लिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती। जाणेहि भावधम्मं किं.ते लिंगेण कायव्वो ॥२॥ छाया-धर्मेण भवति लिंगं न लिंगमात्रेण धर्मसंप्राप्तिः। जानीहि भावधर्म किं ते लिंगेन कर्तव्यम् ॥ २॥ .... अर्थ-अन्तरंग वीतराग रूप धर्म के साथ ही मुनि का लिंग (चिन्ह ) सार्थक है, केवल बाह्य लिंग से धर्म प्राप्त नहीं होता है। इसलिए हे भव्य जीव ! तू आत्मा के शुद्धस्वभावरूप भावधर्म को जान, इस बाह्य लिंगमात्र से तेरा क्या कार्य हो सकता है अर्थात् कुछ भी नहीं ॥२॥ । गाथा-जो पावमोहिदमदी लिंगं घेत्तण जिणवरिंदाणं । उवहसइ लिंगिभावं लिंगिम्मि य णारदो लिंगी ॥३॥ छाया-यः पापमोहितमतिः लिंगं गृहीत्वा जिनवरेन्द्राणाम् । उपहसति लिंगिभावं लिंगिषु च नारदः लिंगी ।।३।। अर्थ-जो पापबुद्धि वाला मुनि तीर्थंकरों का दिगम्बर रूप ग्रहण करके भी लिंगि पने की हँसी करता है अर्थात् खोटी क्रियायें करता है वह लिंगियों में नारद के समान लिंग धारण करने वाला है ॥३॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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