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[ १२७] अथ-आत्मा के स्वभाव से विपरीत पठन पाठन आदि बाह्य क्रिया से, बहुत
प्रकार के उपवास से, तथा आतपन योग आदि कायक्लेश से क्या कार्य सिद्ध होगा अर्थात् मोक्षरूप कार्य सिद्ध नहीं हो सकता ।। ६६
गाथा-जदि पढदि बहु सुदाणि य जदि काहिदि बहुविहं य चारित्तं ।
तं बालसुदं चरणं हवेइ अप्पस्स विवरीदं ॥ १०॥ छाया-यदि पठति बहुश्रुतानि च यदि करिष्यति बहुविधं च चारित्रम् ।
तं बालश्रुतं चरणं भवति आत्मनः विपरीतम् ॥ १०॥ अर्थ-जो आत्मा के स्वभाव से विपरीत बहुत से शास्त्रों को पढ़ता है और बहुत
प्रकार का आचरण करता है वह सब मूल् का शास्त्र ज्ञान और मूों - का चारित्र है ॥१०॥
गाथा-वेरग्गपरो साहू परदव्वपरम्मुहो य जो होदि।
संसारसुहविरत्तो सगसुद्धसुहेसु अणुरत्तो ॥ १०१ ॥ गुणगणविहूसियंगो हेयोपादेयणिच्छियो साहू ।
झाणज्झयणे सुरदो सो पावइ उत्तमं ठाणं ।। १०२ ।। छाया-वैराग्यपरः साधुः परद्रव्यपराङमुखश्च यः भवति ।
संसारसुखविरक्तः स्वकशुद्धसुखेषु अनुरक्तः ॥ १०१ ॥ गुणगणविभूषितांगः हेयोपादेयनिश्चितः साधुः ।
ध्यानाध्ययने सुरतः सः प्राप्नोति उत्तमं स्थानम् ।। १०२ ।। अर्थ-जो साधु वैराग्य में तत्पर है, पर पदार्थों से विरक्त है, संसार के सुखों से
उदासीन है, आत्मा के शुद्ध सुखों में अनुराग रखता है, गुणों के समूह से जिसका शरीर शोभायमान है, त्यागने और ग्रहण करने योग वस्तु का निश्चय करने वाला है और धर्म ज्ञान तथा शास्त्रों के पढ़ने में लीन रहता है, वह उत्तम स्थान अर्थात् मोक्ष पद को प्राप्त करता है ॥ १०१-१०२ ॥
गाथा- णविएहिं जं णविजइ झाइजइ भाइएहिं अणवरयं ।
थुव्वतेहि थुणिज्जइ देहत्थं किं पि तं मुणह ॥१०३ ।।