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छाया-यथा तारकाणां चन्द्रः मृगराजः मृगकुलानां सर्वेषाम् ।
अधिकः तथा सम्यक्त्वं ऋषिश्रावकद्विविधधर्माणाम् ॥ १४४ ॥
अर्थ - जिस प्रकार ताराओं में चन्द्रमा प्रधान है और पशुओं में सिंह प्रधान है, वैसे ही मुनि और श्रावक सम्बन्धी दोनों प्रकार के धर्मों में सम्यग्दर्शन ही प्रधान है ॥ १४४ ॥
गाथा - जह फणिराओ सोहइ फरणमणिमाणिक्ककिरण विष्फुरिओ । तह विमलदंसणधरो जिणभत्ती पवयणे जीवो ॥ १४५ ॥
छाया—यथा फणिराजः शोभते फरणमणिमाणिक्य किरणविस्फुरितः । तथा विमलदर्शनधरः जिनभक्तिः प्रवचने जीवः ॥ १४५ ॥
अर्थ — जैसे फणिराज अर्थात् धरणेन्द्र हजार फरणों की मणियों के बीच में स्थित माणिक्य ( लालमणि ) की किरणों से शोभायमान होता है, वैसे ही निर्मल सम्यक्त्व का धारक जिनेन्द्रभक्त जीव जैन सिद्धान्त में शोभायमान होता है ।। १४५ ।।
गाथा - जह तारायणसहियं ससहर बिंबं खमंडले विमले । भाविय तववयविमलं जिरणलिंगं दंसरणविद्धं ॥ १४६ ॥
छाया -यथा तारागणसहितं शशधरबिम्बं खमण्डले विमले । भावितं तपोव्रतविमलं जिनलिङ्ग दर्शनविशुद्धम् ॥ १४६ ॥
अर्थ- जैसे निर्मल आकाश मण्डल में ताराओं के समुदाय सहित चन्द्रमा का बम्ब शोभित होता है, वैसे ही तप और व्रतों से निर्मल और सम्यग्दर्शन से पवित्र जिनलिङ्ग ( दिगम्बर वेष ) शोभित होता है ॥ १४६ ॥
गाथा - इय गाउं गुणदोसं दंसणरयणं धरेह भावेण ।
सारं गुणरयणाणं सोवारणं पढम मोक्खस्स ॥ १४७ ॥ छाया - इति ज्ञात्वा गुणदोषं दर्शनरत्नं धरत भावेन ।
सारं गुणरत्नानां सोपानं प्रथमं मोक्षस्य ॥ १४७ ॥