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________________ [ १३ ] अर्थ-हे भव्य जीवो ! तुम इस प्रकार सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के गुण और दोष को जानकर सम्यक्त्व रूप रत्न को शुद्ध भाव से धारण करो, जो सम्पूर्ण गुणरत्नों में उत्तम है और मोक्षमहल की पहली सीढ़ी है ॥ १४७ ॥ गाथा-कत्ता भोइ अमुत्तो सरीरमित्तो अणाइणिहणो य । दसणणाणुवोगो णिहिट्ठो जिणवरिंदेहिं ॥१४८॥ छाया-कर्ताभोक्ता अमूर्तः शरीरमात्रः अनादिनिधनश्च । ___ दर्शनज्ञानोपयोगः निर्दिष्टः जिनवरेन्द्रैः ॥१४८॥ अर्थ-यह जीव शुभ अशुभ कर्मों का अथवा आत्मपरिणामों का कर्ता, कर्मफल का भोक्ता, मूर्तिरहित, शरीर के समान आकार वाला, आदि अन्तरहित, दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग सहित है ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है ॥ १४८ ॥ गाथा-दंसणणाणावरणं मोहणियं अंतराइयं कम्मं । णिटुवइ भवियजीवो सम्म जिणभावणाजुत्तो ॥१४॥ छाया-दर्शनज्ञानावरणं मोहनीयं अन्तरायकं कर्म। निष्ठापयति भव्यजीवः सम्यक् जिनभावनायुक्तः ॥१४॥ - अर्थ-भलीभांति जिनभावनासहित भव्यजीव ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिया कर्मों को नाश करता है ॥१४६ ॥ गाथा-बलसोक्खणाणदसण चत्तारिवि पायडा गुणा होति । णटे घाइचउक्के लोयालोयं पयासेदि ॥१५०॥ छाया-बलसौख्यज्ञानदर्शनानि चत्वारोऽपि प्रकटा गुणा भवन्ति । __नष्टे घातिचतुष्के लोकालोकं प्रकाशयति ॥१५०॥ _ अर्थ-चार घातिया कर्मों का नाश होने पर अनन्त बल, अनन्त सुख, अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन ये चार गुण प्रगट होते हैं। इन गुणों के प्रगट होने पर जीव लोकालोक को प्रकाशित करता है ॥ १५० ॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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