SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १] गाथा-इय मिच्छत्तावासे कुणयकुसत्थेहिं मोहिओ जीवो । भमिओ अणाइकालं संसारे धीर चिंतेहि ।। १४१ ॥ छाया-इति मिथ्यात्ववासे कुनयकुशास्त्रैः मोहितः जीवः । भ्रमितः अनादिकालं संसारे धीर ! चिन्तय ॥ १४१ ।। अर्थ-इस प्रकार सर्वथा एकान्त रूप मिथ्यानय से पूर्ण शास्त्रों से मोहित हुए जीव ने अनादि काल से मिथ्यात्व के स्थान रूप इस संसार में भ्रमण किया है। सो हे धीर मुनि ! तू इसका विचार कर ॥ १४१ ॥ गाथा-पासंडि तिषिण सया तिसट्टि भेया उमग्ग मुत्तण । रंभहि मणु जिणमग्गे असप्पलावेण किं बहुणा ॥ १४२ ।। छाया-पाषण्डिनः त्रीणि शतानि त्रिषष्टिभेदाः उन्मार्ग मुक्त्वा। रुन्द्धि मनः जिनमार्गे असत्प्रलापेन किं बहुना ॥ १४२ ।। अर्थ हे जीव ! तुम ३६३ भेदरूप पाषण्डियों के मार्ग को छोड़कर जिनमार्ग में अपना मन लगायो । व्यथे बहुत कहने से क्या लाभ है ।। १४२ ॥ गाथा-जीवविमुक्को सवओ दंसणमुक्को य होइ चलसवओ। _____ सवओ लोयअपुज्जो लोउत्तरयम्मि चलसवओ ॥ १४३ ॥ छाया-जीवविमुक्तः शवः दर्शनमुक्तश्च भवति चलशवः । शवः लोके अपूज्यः लोकोत्तरे चलशवः ।। १४३ ।। अर्थ-इस लोक में जीवरहित शरीर शव (मुर्दा) कहलाता है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनरहित पुरुष चलता हुआ शव होता है। इन दोनों में मुर्दा तो लोक में अपूज्य है अर्थात् जलाया या गाड़ दिया जाता है और चलता हुआ मुर्दा लोकोत्तर अर्थात् उत्कृष्ट सम्यग्दृष्टी पुरुषों में अपूज्य (अनादर के योग्य) होता है अथवा परलोक में नरकतिर्यञ्चादि नीच गति पाता है ॥ १४३ ॥ गाथा-जह तारयाण चंदो मयराओ मयउलाण सव्वाणं । अहियो तह सम्मत्तो रिसिसावय दुविहधम्माणं ।। १४४ ॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy