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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
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सिद्धपर्याय उपज्या नहिं कहा जाता किन्तु शास्वता सदा जीवद्रव्यमें आत्मीक भावरूप सिद्ध पर्याय तिष्ठै ही है । संसारपर्यायको नष्ट करके सिद्धपर्याय नवीन उत्पन्न हुवा, ऐसा जो कथन है सो पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे है । जैसें एक बडा बांस है, उसके आ बाँस में तो चित्र किये हुये हैं और आधे बांसमें चित्र कियेहुये नहीं है । जिस आधे भागमें चित्र नहीं, वह तो ढक रख्खा है और जिस अर्धभागमें चित्र हैं सो निरावरण ( उघड़ाहुवा) है । जो पुरुष इस बांसके इस भेदको नहीं जानता होय, उसको यह बांस दिखाया जाय तौ वह पुरुष पूरे बांसको चित्रित कहैगा, क्योंकि चित्ररहित जो अर्द्ध भाग निर्मल है, उसको जाणता नहीं है । उसही प्रकार यह जीव पदार्थ एक भाग तो अनेक संसारपर्यायोंके द्वारा चित्रित हुवा बहुरूप है और एक भाग शुद्ध सिद्धपर्याय लियेहुये हैं. जो शुद्धपर्याय है सो प्रत्यक्ष नहीं है. ऐसे जीव द्रव्यका स्वरूप जो अज्ञानी जीव नहिं जानता होय, सो संसारपर्यायको देखकर जीव द्रव्यके स्वरूपको सर्वथा अशुद्ध ही मानैगा । जब सम्यग्ज्ञान होय, तब सर्वज्ञप्रणीत यथार्थ आगम ज्ञान अनुमान स्वसंवेदनज्ञान होय तब इनके बलसे यथार्थ शुद्ध आत्मीक स्वरूपको जान देख आचरण कर, समस्त कर्म पर्यायोंको नाश करकें सिद्धपदको प्राप्त होता है. जैसे जलादिकसे धोनेपर चित्रित बांस निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार सम्यग्ज्ञानकर मिथ्यात्वादि भावोंके नाश होने से आत्मा शुद्ध होता है ।
आगे जीवके उत्पादव्यय दशावोंकर 'सत्का' उच्छेद 'असत् ' का उत्पाद इनकी संक्षेपतासे सिद्धि दिखाते हैं ।
एवं भावमभावं भावाभावं अभावभावं च । गुणपज्जयेहिं सहिदो संसरमाणो कुणदि जीवो ॥ २१ ॥
संस्कृतछाया.
एवं भावमभावं भावाभावमभावभावं च ।
गुणपर्ययैः सहितः संसरन् करोति जीवः ॥ २१ ॥
पदार्थ – [ एवं ] इस पूर्वोक्तप्रकार पर्यायार्थिकनयकी विवक्षासे [संसरन्] पंचपरावर्तन अवस्थावोंसे संसारमें भ्रमण करता हुवा यह [ जीवः] आत्मा [भावं ] देवादिक पर्यायोंको [ करोति ] करता है [च] और [ अभावं] मनुष्यादि पर्यायोंका नाश करता है. [च] तथा [भावाभावं] विद्यमान देवादिक पर्यायोंके नाशका आरंभ करता है [च] और [ अभावभावं ] जो विद्यमान नहीं है मनुष्यादि पर्याय तिसके उत्पादका आरंभ करता है । कैसा है यह जीव [ गुणपर्ययैः ] जैसी अवस्था लियेहुये है, उसी तरह अपने शुद्ध अशुद्ध गुणपर्यायोंकर [सहित ] संयुक्त है ।
भावार्थ - अपने द्रव्यत्वस्वरूपकर समस्त पदार्थ उपजते विनशते नहीं, किंतु नित्य