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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
अविनाशी एक जीवका कथन आता नहीं. और जो पर्यायोंकी अपेक्षा नहीं लीजाय तो जीवद्रव्य त्रिकालविषै अभेदस्वरूप एक ही कहा जाता है. इस कारण यह बात सिद्ध हुई कि—जीवद्रव्य निजभावकर तो सदा टंकोत्कीर्ण एकस्वरूप नित्य है और पर्यायकी अपेक्षा नित्य नहीं है. पर्यायोंकी अनेकतासे अनेक होता है. अन्य पर्यायकी अपेक्षा अन्य भी कहा जाता है. इस कारण द्रव्यके कथन की अपेक्षा सत्का नाश नहीं और असत्का उत्पाद नहीं है. पर्याय कथनकी अपेक्षा नाश उत्पाद कहा जाता है ।
आगें सर्वथा प्रकारसे संसारपर्यायका अभावरूप सिद्धपदको दिखाते हैं.
णाणावरणादीया भावा जीवेण सुटु अणुवडा । तेसिमभावं किचा अभूदपुण्वो हवदि सिद्धो ॥ २० ॥
संस्कृतछाया.
ज्ञानावरणाद्या भावा जीवेन सुष्टुः अनुबद्धा: । तेषामभावं कृत्वाऽभूतपूर्वो भवति सिद्धः ॥ २० ॥
पदार्थ – [ ज्ञानावरणाद्याः ] ज्ञानावरणीय आदि आठप्रकार [ भावाः ] कर्मपर्यायें जे हैं [ जीवेन] संसारी जीवको [सुष्ठुः ] अनादि कालसे लेकर राग द्वेष मोहके बशसे भलीभांति अतिशय गाढे [ अनुबद्धा: ] बांधे हुये हैं [तेषां] उन कर्मोंका [ अभाव ] मूल सत्तासे नाश [कृत्वा] करके [ अभूतपूर्वः ] जो अनादिकाल से लेकर किसीकालमें भी नहिं हुवा था ऐसा [सिद्धः ] सिद्ध परमेष्ठी पद [ भवति ] होता है ।
भावार्थ- द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक भेदसे नय दो प्रकारका है । जब द्रव्यार्थिकनयकी विवक्षा की जाती है, तब तो त्रिकालविषै जीवद्रव्य सदा अविनाशी टंकोत्कीर्ण संसार पर्याय अवस्थाके होते हुये भी उत्पाद नाशसे रहित सिद्ध समान है । पर्यायार्थिकनयकी विवक्षाकर जीवद्रव्य जब जैसी देवादिकपर्यायको धारण करता है तब तैसा ही होकर परिणमतासंता उत्पाद नाश अवस्थाको घरता है. इन ही दोऊ नयोंका विलास दिखाया जाता है।
अनादि काल से लेकर संसारी जीवके ज्ञानावरणादि कर्मोंके सम्बन्धोंसे संसारी पर्याय है. तहां भव्य जीवको काललब्धि से सम्यग्दर्शनादि मोक्षकी सामग्री पानेसे सिद्ध पर्याय यद्यपि होती है तथापि द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा सिद्धपर्याय नूतन ( नया ) हुवा नहिं कहा जा सक्ता. अनादिनिधन ज्योंका त्यों ही है । कैसे ? जैसें कि, – अपनी थोरी स्थिति लिये नामकर्मके उदयसे निर्मापित देवादिक पर्याय होते हैं, उनमें कोई एक पर्याय अशुद्ध कारणसे जीवके उत्पन्न हुये संते नवीन पर्याय हुवा नहिं कहा जाता. क्योंकि – संसारीके अशुद्धपर्यायोंकी सन्तान होती ही है. जो पहिले न होती तो नवीन पर्याय उत्पन्न हुवा कहा जाता । इस कारण जबतक जीव संसार में है, तबतक पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे नया संसारपर्याय उपज्या नहिं कहा जाता, पहिला ही है । उसी प्रकार द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा नवीन