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________________ ( ८६ ) ज्ञानों से समस्त ज्ञेयों के ग्रहण की आपत्ति अनिवार्य होगी। इसलिये यही कहना होगा कि ज्ञान अपने कारणों से नियत विषय का ग्राहक होकर ही उत्पन्न होते हैं अतः एक विषय के ज्ञान को अन्य विषयों की ग्राहकता नहीं प्राप्त होगी । फिर ऐसी स्थिति में ज्ञेय और ज्ञान में विजायतीयता मानने पर भी कोई आपत्ति न होने के कारण उन दोनों की अभिन्नजातीयता का सिद्धान्त निराधार है। ज्ञेय की असत्यता का खण्डन सूर्य के प्रखर प्रकाश में चमकती हुई सीपी तथा धुंधले प्रकाश में टेढ़ी मेढ़ी पड़ी हुई रस्सी पर आंख पड़ने पर कभी-कभी किसी-किसी मनुष्य को सीपी के स्थान में चांदी और रस्सी के स्थान में साँप के दर्शन होते हैं, पर इस चांदी और सांप को सत्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि निकट में जाकर सावधानी से देखने पर अथवा अन्य प्रकार से परीक्षा करने पर उन स्थानों में चांदी तथा सांप के दर्शन नहीं होते, एवं सच्ची चाँदी तथा सच्चे सांप की प्राप्ति नहीं होती। फलतः वह चांदी और वह साँप दोनों असत्य हैं। __ अन्य स्थानों में जिस चांदी तथा सांप को जो मनुष्य पहले से देख रखता है उसको उस चांदी तथा उस सांप के संस्कार अथवा संस्कार-वश होने वाले उस चांदी तथा उस सांप के स्मरण के कारण सीपी के स्थान में उस चांदी का तथा रस्सी के स्थान में उस सांप का दर्शन होता है, अतः सीपी और रस्सी के स्थान मे जिस चांदी और सांप का दर्शन होता है उनके सत्य होने में कोई बाधा नहीं है । निकट में जाकर सावधानी से देखने पर उन स्थानों मे चांदी और सांप के दर्शन जो पुनः नहीं होते उसका कारण उस चांदी तथा उस सांप की असत्यता नहीं है किन्तु सीपी और रस्सी की पहचान है, अर्थात् सीपी में चांदी तथा रस्सी में सांप के दर्शन के कारणों में सीपी और रस्सी का न पहचानना भी सामिल है, इसलिये जब मनुष्य उन्हें पहचान लेता है तब उनका न पहचानना रूप कारण नहीं रह जाता, अतएव तब सीपी में चांदी और रस्सी में सांप के दर्शन नहीं होते। इसी प्रकार उन स्थानों में चांदी और सांप की जो प्राप्ति नहीं होती उसका भी कारण उनकी असत्यता नहीं किन्तु उन स्थानों में उनकी अविद्यमानता है, अर्थात् किसी स्थान में किसी वस्तु की प्राप्ति के लिये केवल उस स्थान में उसका दिखाई पड़ना ही पर्याप्त नहीं है अपितु उस स्थान में उसका रहना भी आवश्यक है, सीपी के स्थान में चांदी एवं रस्सी के स्थान में सांप का केवल दर्शन होता है, वहाँ वह वस्तुयें विद्यमान नहीं रहतीं, अतएव वहाँ उनकी प्राप्ति नहीं होती।
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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