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- ( ६५ ) तात्पर्य यह है कि तादात्म्य से अतिरिक्त सारे सम्बन्ध भिन्नता के साथ सम्भव हैं । अतः तादात्म्य से भिन्न कोई भी सम्बन्ध मानने पर उससे ज्ञेय और ज्ञान की अभिन्नता का स्थापन नहीं किया जा सकता।
प्रकाश-ज्ञान के तादात्म्य सम्बन्ध से भी ज्ञेय और ज्ञान की अभिन्नता का साधन नहीं किया जा सकता, क्योंकि तादात्म्य को अभेदरूप मानने पर साध्य और हेतु में ऐक्य हो जाने से स्वरूपासिद्धि होगी । और यदि तादात्म्य को भेदसहवर्ती अभेद-रूप मानकर उससे शुद्ध अभेदमात्र का साधन करने का प्रयास किया जायगा तो वह भी नहीं हो सकेगा क्योंकि भेदसहवर्ती अभेद का केवल अभेद से विरोध है। तादात्म्य को तन्मात्र में रहने वाला धर्म अथवा तत् में न रहने वाले धर्म का अभावरूप मानकर भी उसे ज्ञेय और ज्ञान के अभेदसाधन का हेतु नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि ज्ञानमात्र में रहने वाला धर्म तथा ज्ञान में न रहने वाले धर्म का अभाव ज्ञेय में सिद्ध नहीं है अतः उक्तरूप तादात्म्य को हेतु बनाने पर स्वरूपासिद्धि हो जायगी।
ज्ञेय और ज्ञान की अभिन्नजातीयता का खण्डन सहोपलम्भनियम, ग्राह्यत्व और प्रकाशमानत्व हेतुओं से ज्ञेय में ज्ञान की 'अभिन्न जातीयता' अर्थात् एकजातीयता का भी साधन नहीं हो सकता। क्योंकि न्याय, वैशेषिक शास्त्रों के अनुसार सत्ता जाति के द्वारा ज्ञेय और ज्ञान में एकजातीयता होने पर भी जैसे ज्ञेय में ज्ञानत्व का सम्बन्ध नहीं होता वैसे ही विज्ञानवादी के मत में भी एकजातीयता मान लेने से अर्थान्तर हो जायगा।
अभिन्नजातीयता के स्थान में यदि भिन्नजातीयता के अभाव को साध्य बनाया जायगा तो उक्त दोष तो नहीं होगा किन्तु भिन्नजातीयता के अभाव के साधन में उक्त हेतुवों में अप्रयोजकत्व दोष अवश्य होगा, क्योंकि भिन्नजातीयता मानने पर भी उक्त सभी हेतु उपपन्न हो जाते हैं।
यदि यह कहा जाय कि ज्ञान को विजातीय वस्तु का ग्राहक मानने पर प्रत्येक ज्ञान को समस्त वस्तुओं का ग्राहक होने की आपत्ति होगी क्योंकि ज्ञान से अतिरिक्त सभी वस्तुयें ज्ञान से विजातीय हैं, अत: यह नियम मानना आवश्यक है कि ज्ञान अविजातीय वस्तु का ही ग्राहक होता है। पर यह कथन भी ठीक कहीं है, क्योंकि इस प्रकार का दोष ज्ञेय और ज्ञान में सजातीयता वा विजातीयता का अभाव मानने पर भी बना ही रहेगा, कारण कि सभी ज्ञान और ज्ञेयों में एकजातीयता वा विजातीयता का अभाव होने से समस्त