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________________ ( ८७ ) विचार करने पर यह कल्पना भी ठीक नहीं उतरती क्योंकि वैसा मानने पर "वह चांदी" और "वह सांप” इस प्रकार का अनुभव होना चाहिये न कि "यह चांदी' और “यह सांप" इस प्रकार का, पर होता है इस दूसरे प्रकार का ही अनुभव । अतः यही मानना होगा कि सीपी में दिखाई पड़ने वाली चांदी तथा रस्सी में दिखाई पड़ने वाला सांप दोनों ही असत्य हैं, और इस प्रकार जब कतिपय ज्ञानों के विषयों की असत्यता सिद्ध हो जायगी तो उन्ही दृष्टान्तों से समस्त ज्ञान के विषयों की भी असत्यता का अनुमान हो जायगा । फलतः यही सिद्धान्त स्थिर करना होगा कि जो कुछ भी ज्ञेय है वह सब असत्य है। इस मान्यता पर यह प्रश्न हो सकता है कि यदि समस्त ज्ञान के विषय असत्य ही होंगे तो सीपी में जो चांदी का ज्ञान होता है और चांदी में जो चाँदी का ज्ञान होता है उनमें फलतः कोई अन्तर नहीं होना चाहिये । अर्थात् दोनों ज्ञानों से एक रूप ही चांदी की प्राप्ति होनी चाहिये और क्रय, विक्रय आदि में एक ही जैसा व्यवहार होना चाहिये । पर ऐसा नहीं होता इसलिये सीपी में दिखाई देनेवाली चांदी को असत्य और चांदी में दिखाई देनेवाली चांदी को सत्य मानना आवश्यक है। ___ इसका उत्तर यों दिया जा सकता है कि उक्त दोनों ज्ञानों में फलतः भी कोई विशेष वैषम्य नहीं है, क्योंकि सीपी को एक बार चाँदी समझ लेने के बाद जब तक उसे चाँदी से भिन्न नहीं समझा जाता तब तक लोकदृष्टया सच्ची समझी जाने वाली चांदी के समान ही उसका व्यवहार होता है अर्थात् सीपी को चाँदी के रूप में देखने वाला व्यक्ति उसे पाकर चाँदी पाने का ही आनन्द अनुभव करता है और सीपी को चांदी समझने वाले मनुष्यों के बीच उसका आदान-प्रदान भी लोकसम्मत चाँदी के ही जैसा होता है। हाँ, जब वह चाँदी से भिन्न समझ ली जाती है तब वह चाँदी के व्यवहारक्षेत्र से पृथक कर दी जाती है। यही बात लोकसम्मत चाँदी के भी सम्बन्ध में है, साधारण मनुष्य चाँदी और सीपी को सत्य मान कर उनमें उत्कर्ष और अपकर्ष की कल्पना कर लेता है और उसी के अनुसार उन दोनों के साथ विषम व्यवहार भी करता है, पर जिस उच्च मानव को उनके यथार्थ रूप-असत्यता का परिचय हो जाता है वह उनमें विषम व्यवहार नहीं करता, वह तो दोनों को ही हेय समझता है ! यह भाव अध्यात्मचिन्तन में निरत पुरुषों में बहुधा उपलब्ध होता है। पर यह उत्तर ठीक नहीं है क्योंकि समस्त ज्ञान के विषयों को असत्य मानने पर सीपी में दिखाई देने वाली चाँदी और लोकसम्मत चांदी में एक
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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