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________________ ( ७६ ) यह उत्तर देते हुये उन्होंने यह भी कहा है कि जाति के वर्तन का नियम तो स्वभाव द्वारा व्यवस्थापित हो सकता है पर उसके बल से अनुगत व्यवहार का समर्थन करके जाति को अन्यथासिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि व्यवहार विषय-तन्त्र होता है अतः उसकी अननुगता और अनुगतता का उपपादन अननुगत और अनुगत विषय के द्वारा ही किया जा सकता है । शिरोमणि के इस उत्तर के विषय में यशोविजय जी का कथन यह है कि उक्त उत्तर काणदृष्टि शिरोमणि की केवल उत्प्रेक्षा मात्र होने के कारण आदरास्पद नहीं हो सकता। उनका तात्पर्य यह है कि काण होने के नाते शिरोमणि की जैसे बाह्यदृष्टि अधूरी है वैसे ही महावीर स्वामी के उपदेश से वञ्चित रहने के कारण उनकी अन्तष्टि-ज्ञानदृष्टि-विचारदृष्टि भी अधूरी है, अतः यह बात उनके समझ में नहीं आसकती कि जगत् की प्रत्येक वस्तु परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले अनन्त रूपों से युक्त है, इस लिये गो आदि पदार्थ जैसे विशेषरूप हैं वैसे ही कथञ्चित् सामान्य रूप भी हैं, इस लिये सामान्यरूप से उन्हीं के द्वारा अनुगत व्यवहार की सिद्धि हो जाने के कारण अतिरिक्त गोत्व आदि जाति की कल्पना अनावश्यक है। भेदग्रहस्य हननाय य एष दोषः प्रोक्तः परैस्तव मते ननु सोऽप्यभेदः ।। त्वदृष्टवस्तुनि न मोघमनन्तभेदा. भेदादिशक्तिशबले किमु दोषजालम् ॥ ३३ ॥ ___ इस श्लोक में एक और हृदयस्पर्शी प्रकार से जाति और व्यक्ति के परस्पर अभेद का साधन किया गया है, जो इस प्रकार है। __ भेद के दो प्रकार हैं, एक अन्यत्व और दूसरा भिन्नदेशत्व अर्थात् दो भिन्न दिशाओं में अथवा दो भिन्न देशों में रहना। जाति में व्यक्ति का अन्यत्वरूप भेद ही रहता है, दूसरा भेद नहीं रहता, किन्तु उसका विरोधी-भिन्नदेशता का अभावरूप अभेद रहता है। यह अभेद पहले भेद का विरोधी नहीं है अतः उसके साथ इसके रहने में कोई बाधा नहीं है। ___इस अभेद के विषय में जैनदर्शन की अपनी साम्प्रदायिक ही दृष्टि नहीं है क्योंकि यह न्यायादि दर्शनों को भी मान्य है, अन्यथा जाति और व्यक्ति में भेद मानने पर विभिन्न और व्यवहित दो अधिकरणों में उनके प्रत्यक्ष की आपत्ति का दूसरा समाधान नहीं हो सकता, और उक्त अभेद स्वीकार करने पर उसे उक्त प्रत्यक्ष का प्रतिबन्धक मान लेने से उक्त आपत्ति का परिहार सुकर हो जाता है।
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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