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________________ ( ७५ ) इस लिये यही मत न्याय्य है कि गोत्व आदि सामान्य अपने आश्रय से भिन्न नहीं हैं, वस्तुदृष्टया अपने आश्रय से अभिन्न होते हुये स्वरूपतःसामान्यत्व, विशेषत्व आदि से अविशेषित-गृह्यमाण होकर अपने आश्रयों के अनुगत व्यवहार का जनन करते हैं, अर्थात् गोज्ञान ही गोव्यवहार का कारण होता है न कि अतिरिक्त गोत्व का ज्ञान गोव्यवहार का कारण होता है । अनुगत व्यवहार अनुगत जाति ही के द्वारा सम्पादित हो सकता है. अतः अनुगत व्यवहार ही अनुगत जाति का साधक होता है, यह पक्ष भी अन्योन्याश्रय दोष से ग्रस्त होने के कारण अमान्य है । अन्योन्याश्रय इस प्रकार समझा जा सकता है-- अनुगतव्यवहार का अनुगतत्व अथवा एकत्व को विषय करने वाला व्यवहार-यह अर्थ करने पर वह अनुगत जाति का साधक नहीं बन सकेगा, क्योंकि जो धर्म अनेक काल में अनुगत और एक व्यक्ति मात्र में आश्रित होता है उसमें भी कालदृष्टया अनुगतत्व और व्यक्तिदृष्टया एकत्व का व्यवहार होता है, परन्तु वह धर्म जातिरूप नहीं माना जाता, जैसे परमाणुगत रूप और विशेष पदार्थ। इस लिये अनुगत व्यवहार का - अनुगत जाति को विषय करने वाला व्यवहार - यही अर्थ करना होगा। फिर उसे अनुगत जाति का साधक मानने में अन्योन्याश्रय स्पष्ट ही है, क्योंकि व्यवहार में अनुगतजातिगोचरता सिद्ध हो जाने पर ही उसके उपपादनार्थ अनुगत जाति की सिद्धि हो सकती है और अनुगत जाति की सिद्धि हो जाने पर ही व्यवहार में अतुगतजातिगोचरता की सिद्धि हो सकती है। जातेर्हि वृत्तिनियमो गदितः स्वभावा जाति विना न च ततो व्यवहारसिद्धिः । उत्प्रेक्षितं ननु शिरोमणिकाणदृष्टस्त्व द्वाक्यबोधरहितस्य न किञ्चिदेव ।। ३२॥ इस श्लोक में प्रसिद्ध नैयायिक दीधितिकार रघुनाथशिरोमणि के जातिविषयक विचार की आलोचना की गयी है। जो इस प्रकार है। व्यक्ति से भिन्न जाति की कल्पना करने पर यह प्रश्न उठता है कि कोई जाति किसी समान आकार वाले व्यक्तियों में ही क्यों रहती है, जैसे गोत्व जाति सास्ना- गलकम्बल-सादड़ी से युक्त प्राणियों में अर्थात् गाय, बैल आदि में ही रहती है अन्य पशुओं में नहीं रहती है, यह क्यों ? इस प्रश्न के अनेक उत्तर न्यायशास्त्र के ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं, किन्तु शिरोमणि ने उन उत्तरों पर अनास्था प्रकट करते हुये यह उत्तर दिया है कि यह जाति का स्वभाव है जो वह सब पदार्थों में न रह कर नियत पदार्थों में ही रहती है।
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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