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________________ ( ५६ ) यदि इस पर यह कहा जाय कि जल-प्रतीति में जल का अजलव्यावृत्ति रूप से स्फुरण मानना आवश्यक है, अन्यथा “जल लावो" इस आज्ञावाक्य से जल के समान अन्य वस्तु के आनयन में भी प्रवृत्ति की आपत्ति होगी क्योंकि श्रोता को "जल लावो" इस वाक्य से यह प्रतीति नहीं हुई कि उसे वही वस्तु लानी चाहिये जो अजल से व्यावृत्त है । परन्तु यह बात भी ठीक नहीं है यतः " जल लावो" इस वाक्य से जल लाने का आदेश अवगत होता है न कि अजल लाने का क्योंकि जलशब्द का अर्थ जल है न कि अजल, फिर उस वाक्य से श्रोता की जल-भिन्न वस्तु के आनयन में प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? जल लाने में प्रवृत्ति होने के लिये जल लाने के आदेश का ज्ञान क्षपेक्षित है न कि जो अजल - भिन्न है उसे लाने के आदेश का ज्ञान, क्योंकि अजलभिन्न जल ही होता है फिर सीधे तौर पर जल लाने के आदेश का ज्ञान मानने से भी जब काम चल जाता है तो टेढ़े ढंग से उसके लाने के आदेश के ज्ञान की कल्पना क्यों की जाय ? जो भाव और अभाव इन दोनों में साधारण होता है वह अन्यव्यावृत्तिरूप होता है, जैसे अमूर्तत्व भावाभावसाधारण है अर्थात् आकाश आदि द्रव्यों में तथा गुणादि पदार्थों में अमूर्तत्व का भाव है और पृथिवी आदि द्रव्यों में उसका अभाव है अतः वह अन्यव्यावृत्ति अर्थात् मूर्त-भेद रूप है । जलत्वादि धर्म भी भावाभावसाधारण हैं अर्थात् कहीं इनका भाव है और कहीं अभाव । उदाहरण और उपनय से घटित इस उभयावयवक न्याय से जलत्वादि धर्मो में अजलादिव्यावृत्तिरूपता की आनुमानिक सिद्धि होगी । अथवा जो अत्यन्त विलक्षण वस्तुवों में सालक्षण्य सादृश्य के व्यवहार का सम्पादक होता है वह अन्यव्यावृत्ति रूप होता है, जैसे अमूर्तत्व परस्पर में अत्यन्त विलक्षण आकाश, काल आदि द्रव्य एवं गुणादि पदार्थो में "यह सब पदार्थ अमूर्त हैं" ऐसे सादृश्यव्यवहार का सम्पादक होने से अन्यव्यावृत्तिमूर्त-भेदरूप है । जलत्वादि धर्म भी परस्पर में अत्यन्त विलक्षण अनेक जलादि व्यक्तियों में "यह सब जल हैं" ऐसे सादृश्यव्यवहार का सम्पादक है । इस द्वयवयव न्याय से भी जलत्वादि धर्मों में अन्यव्यावृत्तिरूपता की आनुमानिक सिद्धि होगी । बौद्धों का यह प्रयास भी प्रशस्त नहीं है क्योंकि जैसे उष्णत्व का प्रत्यक्षानुभव अग्नि में अनुष्णता के अनुमान का बाधक हो जाता है, वैसे ही जलत्वादि धर्मों का विधिरूप से जो प्रत्यक्षानुभव सर्वसम्मत है वह उन धर्मों की अन्य
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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