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________________ ( ५८ ) धर्मकीर्ति और दिङ्नाग आदि का मत : जलत्वादि अलीक हैं, इस कथन का तात्पर्य यह है कि जलत्वादि स्थायी भावभूत बस्तु नहीं है, किन्तु अजलादि-निवृत्तिरूप हैं । और निवृत्ति - अभाव की अलीकता स्थायिभाव - भिन्नता सर्वसम्मत है, इसीलिये कहा जाता है कि जलत्वादि धर्म अलीक हैं, और इस प्रकार की अलीकता जलत्वादि की अजलादिनिवृत्तिरूपता उन्हीं अनुभवों से गृहीत होती है जो जलत्वादि धर्मों के ग्राहक माने जाते हैं । यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि अनुभवों में जलत्वादि धर्मो का भाव रूप ही से स्फुरण होता है निवृत्तिरूप से नहीं । जल को देख कर किसी को कदापि यह अनुभूति नहीं होती कि मैं अजलनिवृत्ति देख रहा हूँ । प्रत्युत यही अनुभूति होती है कि मैं जल देख रहा हूँ । इस पर यदि यह कहा जाय कि जलादि के अनुभवों में अजलादिव्यावृत्ति से विशिष्ट जलादि का ही स्फुरण होता है, अतः अजलव्यावृत्तिरूप से जल की अनुभूयमानता की प्रतीति न होने पर भी यह अनुमान किया जासकता है कि जल की प्रतीति अजलनिवृत्ति को ग्रहण करती है क्योंकि वह अजलनिवृत्ति से बिशिष्ट जल को ग्रहण करती है, जो प्रतीति विशेषण और विशेष्य दोनों को नहीं ग्रहण करती वह विशिष्ट को नहीं ग्रहण कर सकती क्योंकि विशेषण और विशेष्य से पृथक् विशिष्ट का अस्तित्व नहीं होता । परन्तु यह भी कथन ठीक नहीं है क्योंकि जलादि के अनुभवों में वस्तुगत्या अजलादि से व्यावृत्त जो जलादि का स्वरूप है उसी का भान होता है न कि अजलादिव्यावृत्तिविशिष्टात्मना जलादि का भान होता है । अतः जलादि की प्रतीति में अजलादिव्यावृत्ति के स्फुरण का अनुमान नहीं हों सकता । क्योंकि जो प्रतीति यद्विशिष्टात्मना विशेष्यको विषय करती है उसी प्रतीति में उस विशेषण के भान का नियम है, इसीलिये दण्डविशिष्टात्मना पुरुष को बिषय करने वाली “यह पुरुष दण्ड वाला है" यह प्रतीति ही दण्ड को विषय करती है, और जो प्रतीति दण्ड वाले पुरुष को दण्डविशिष्टात्मना नहीं विषय करती किन्तु दण्डी पुरुषके निजी रूप मात्र से विषय करती है । जैसे "यह ( दण्डी ) पुरुष है" वह दण्ड को विषय नहीं करती। इसलिये यह स्वष्ट है कि जल आदि की प्रतीति वस्तुतः अजलादिव्यावृत्त जलादि को ही विषय करती है किन्तु अजलादिव्यावृत्तिरूप से नहीं । अतः उस प्रतीति में अजलादिव्यावृत्ति के भान का अनुमान नहीं किया जा सकता, फिर किस प्रतीति के बल से जलत्वादिधर्मो की अजला दिव्यावृत्तिरूपता का समर्थन किया जा सकता है ?
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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