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________________ ( ५७ ) केही ज्ञान की अपेक्षा हो जाने से आत्माश्रव दोष हो जायगा । एवं जलत्व को अजलव्यावृत्ति से भिन्न मानने पर भी यदि उसको पूर्व में ज्ञायमान न माना जायगा तो अजलव्यावृत्ति दुर्ज्ञेय हो जायगी । जलत्व अजलब्यावृत्ति के वैशिष्ट्य का बोधक है अतः उसे अजलव्या वृत्तिरूप मानना आवश्यक हैं, क्योंकि एक धर्म से अन्य धर्म के अन्य वैशिष्ट्य का बोध नहीं होता, यह जो बात कही गयी हैं, वह यहाँ तब लागू हो सकती है जब जलत्व को विषयविधया अजलव्यावृत्ति के वैशिष्ट्य का बोधक माना जाय, पर ऐसा नहीं माना जाता । किन्तु जैसे गन्ध को हेतुविधया पृथिवीतरभेद के वैशिष्ट्य का बोधक माना जाता है और वह पृथिवीतरभेदरूप नहीं माना जाता है, वैसे ही जलत्व भी हेतुविधया अजलव्यावृत्ति के वैशिष्ट्य का बोधक माना जाता है अतः उसे अजलव्यावृत्तिरूपता नहीं हो सकती । एक धर्म अन्य वैशिष्ट्य का बोधक नहीं होता । इस नियम का अर्थ यही है कि एक धर्म विषयविधया अन्य वैशिष्ट्य का बोधक नहीं होता । और यह जो बात कही गई थी कि यदि जलप्रतीति में जल में अजलव्यावृत्ति का भान न होगा तो जलत्व को जल की विशेषणता न होगी, वह ठीक नहीं है, क्योंकि विशेषणा की उपपत्ति के लिये विशेषण को इतरभेद की प्रत्यायकता आवश्यक है न कि विशेषणयुक्त विशेष्य की प्रतीति में इतरभेद का भान । अतः पहले जलत्वरूप विशेषण से विशिष्ट जल की प्रतीति हो जाने पर बाद में जलत्वात्मक विशेषणता को हेतु करके जल में जलेतरभेद का अनुमान कर जलत्व की जलविशेषणता का उपपादन करना चाहिये । इस पर बाह्यार्थवादी अर्थात् ज्ञान से भिन्न वस्तु की सत्ता मानने वाले बौद्ध यह कह सकते हैं कि व्यक्ति की सत्ता तो प्रामाणिक है पर प्रवृत्त्युपयोगी जलत्व आदि सामान्य धर्मो की सत्ता प्रामाणिक नहीं है । वे धर्म अलीक होते हुये भी विशिष्ट प्रतीतियों के द्वारा प्रवृत्ति आदि कार्यों का सम्पादन करते हैं । अतः जलत्वादि स्थिर धर्मो का अस्तित्व न होने से उनमे सत्ता हेतु क्षणिकता का व्यभिचारी नहीं हो सकता । परन्तु जलत्वादि की अलीकता का कोई साधक न होने से यह कथन ठीक नहीं है । क्योंकि जिन अनुभवों से जलत्वादि धर्मं गृहीत होते हैं वे उन धर्मों की अलीकता का उल्लेख नहीं करते, अतः उनके बल से उन धर्मों की अलीकता नहीं मानी जा सकती। दूसरे ज्ञान भी उन धर्मों की अलीकता का साधन नहीं कर सकते, क्योंकि जब एक अनुभव में भावरूप से उन धर्मों का स्फुरण होता है तो दूसरा अनुभव अकारण ही उन धर्मों की अलीकता का बोधन कैसे कर सकता है ?
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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