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________________ ( ११ ) से युक्त बीज आदि कारणों ही में है । कुसूलस्थ बीज सहकारिवर्ग से युक्त नहीं है, अत: उसमें अङ्कुर की उत्पादकता कथमपि नहीं प्रसक्त हो सकती, इस प्रकार तर्क का अवतरण निरुद्ध हो जाने से तन्मूलक उक्त विपरीतानुमान भी नहीं हो सकता । फलतः कुसृलस्थ बीज में अङ्कुर के प्रति समर्थता के व्यवहार का अभाव न सिद्ध हो सकने से उसमें क्षेत्रस्थ बीज का भेद नहीं प्रमाणित किया जा सकता । पतावतैव हि परप्रकृतप्रसङ्ग भङ्गन सिद्धयति कथाश्रितपूर्वरूपम् । शिष्यै विधेयमुचितं विशदस्वभाव प्रश्नोत्तरं तु तव देव ! नयप्रमाणैः ॥ ८ ॥ समर्थव्यवहार में कार्यकारिता की व्याप्ति नहीं है इतना प्रतिपादन कर देने मात्र से ही पूर्व पक्ष में बौद्धद्वारा उपस्थित किये गये तर्कका खण्डन हो जाने से यद्यपि कथा का पूर्वरूप सम्पन्न हो जाता है, तथापि प्रतिवादी के जिज्ञासु भाव से वस्तु स्वभाव के बारे में प्रश्न करने पर, हे भगवन् ! तुम्हारे शिष्यों को समस्त नय रूप प्रमाणों के द्वारा उस प्रश्न का यथार्थ उत्तर देना ही चाहिये । किसी वस्तु के विषय में सन्देह या विवाद खड़ा हो जाने पर उसके तात्विक रूप का निश्चय करने या पर-पक्ष का खण्डन कर प्रतिवादी के ऊपर विजय प्राप्त करने की इच्छा से विद्वानों के बीच जो विचारविनियम होता है उसे कथा कहा जाता है, उसके तीन भेद होते हैं-वाद, जल्प और वितण्डा । वाद का उद्देश्य विजय प्राप्ति न होकर तत्वनिर्णय मात्र ही होता है, अतः जल्प के तत्त्वनिर्णय और विजय सकते हैं, वितण्डा में अपने पक्ष की की हो प्रधानता रहती है । यह गुरु-शिष्य या दो मित्रों में ही होता है। इन दोनों में से एक या दोनों ही उद्देश्य हो स्थापना नहीं होती किन्तु पर-पक्ष के खण्डन इस श्लोक में कथा शब्द से जल्प ही उपात्त किया गया है, क्योंकि अपने अभिमत पक्ष की स्थापना और विरुद्धपक्ष का खण्डन ये दोनों बातें इस कथा में सामिल हैं, इस जल्पात्मक कथा का पूर्व रूप है पर पक्ष का खण्डन और उत्तर विचार की चर्चा चल रही है उसमें क्षणिकता का पक्ष पर पक्ष है और रूप है अपने पक्ष का समर्थन, यहां जिस बौद्ध से उपस्थित किया गया विश्व की स्थिरता या उभयरूपता का पक्ष निजी पक्ष है । बौद्ध ने सामर्थ्य तथा समर्थ व्यवहार इन दो हेतुओं से कुसूलस्य बीज में अङ्कुरकारिता का आपादन करने वाले तर्क का सहारा ले तन्मूलक
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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