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________________ ( १६० ) का निर्माण कुछ भी न हो सकने के कारण इस प्रत्यक्ष जगत् की भी उपपत्ति न हो सकेगी। इस शङ्का का उत्तर यह है कि उपर्युक्त दोष को आपत्ति तब होती जब आत्मा को एकान्ततः अव्यापक ही माना जाता, पर जैनदर्शन में जैसे आत्मा की एकान्ततः व्यापकता नहीं है उसी प्रकार उसकी एकान्ततः अव्यापकता भी नहीं है, यह बात पूर्वश्लोक में ही स्पष्ट कर दी गई है कि आत्मा व्यक्तिरूप में अव्यापक-अपने विद्यमान शरीरमात्र में ही सीमित होने पर भी शक्तिरूप में विभु है समस्त लोकाकाशप्रसरी है, अतः आत्मा अपनी अदृष्टशक्ति से विभिन्न दिशाओं और विभिन्न स्थानों में स्थित विभिन्न परमाणुओं को गतिशील बना उनके परस्पर मिलन को सम्पन्न कर जगत् के विस्तार को शक्य और सम्भव कर सकता है । __ उपर्युक्त रीति से प्रसक्त अनुप्रसक्त समस्त विषयों पर विचार करने पर यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है कि शक्ति की दृष्टि से आत्मा को विभु और व्यक्ति की दृष्टि से उसे अविभु अर्थात् शरीरमात्र में सीमित मानने में कोई बाधा नहीं है। .. मूर्तत्वसावयवतानिजकार्यभाव. च्छेदप्ररोहपृथगात्मकताप्रसङ्गाः । सर्पा इवातिविकरालशोऽपि हि त्वत् स्याद्वादगारुडसुमन्त्रभृतां न भीत्यै ।। ७२ ।। आत्मा को अविभु मानने पर कुछ और भी आपत्तियाँ उठती हैं, जो इस प्रकार हैं। आत्मा यदि अविभु होगा तो मूर्त होगा। और मूर्त होने पर दो मूर्त द्रव्यों का एक स्थान में समावेश शक्य न होने के कारण शरीर में उसका अनुप्रवेश न हो सकेगा । और यदि मूर्त शरीर में मूर्त मन और बालुकापुञ्ज में मूर्त जल कणों के समान मूर्त शरीर में मूर्त आत्मा के समावेश की उपपत्ति की जायगी तो शरीर के समूचे भाग में शैत्य औष्ण्य आदि की सह अनुभूति की उपपत्ति के लिये शरीर के समस्त अवयवों में आत्मा का सह अनुप्रवेश मानना होगा, और उसके सामञ्जस्य के लिये उस को शरीरसमप्रमाण मानना होगा। और शरीरसम होने पर शरीर के समान उसे जन्य तथा शरीर का खण्ड एवं प्ररोह होने पर उसका भी खण्ड और प्ररोह मानना होगा । इन आपत्तियों के अतिरिक्त दूसरी आपत्ति यह होगी कि जब कभी कोई एक शरीर कट कर अनेक खण्डों में विभक्त होगा तो उन जीवित खण्डों में उस शरीर के आत्मा का अनुप्रवेश होने पर एक ही आत्मा के अनेक भेद हो जायगे ।
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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