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________________ ( १५६ ) माना जायगा तो अदृष्ट का जैसा सम्बन्ध अग्नि के साथ है वैसा ही सम्बन्ध जल, वायु आदि के भी साथ है फिर उस सम्बन्ध से जैसे अग्नि की ज्वाला में ऊर्ध्वगति होती है वैसे ही जल और वायु आदि में भी ऊर्ध्वगति होने की आपत्ति होगी, इस लिये यही मानना उचित होगा कि अग्नि का ऊर्ध्वज्वलन, जल का निम्नवहन और वायु का तिर्यग्वहन उनके अपने-अपने विलक्षण स्वभाव के ही कारण होता है । यदि यह कहा जाग कि अदृष्ट कार्यमात्र का कारण होता है, विना अदृष्ट कोई कार्य नहीं होता, अतः ऊर्ध्वज्वलन आदि को उत्पन्न करने वाले अदृष्ट को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता, फिर अदृष्ट से ही जब ऊर्ध्वज्वलन आदि का नियमन हो सकता है तब अग्नि आदि के स्वभावभेद को ऊर्ध्वज्वलन आदि का नियामक मानना उचित नहीं है, इसलिये ऊर्ध्वज्वलन आदि प्रति अटकी कारणता को उपपन्न करने के लिये उसके आश्रयभूत आत्मा का शरीर से बाहर भी अस्तित्व मानना आवश्यक है, तो इस कथन के उत्तर में जैनदर्शन का यह वक्तव्य होगा कि अदृष्ट कार्यमात्र का कारण है अतः उसीको, उर्ध्वज्वलन आदि का नियामक मानना उचित है, यह बात ठीक है, पर इसके लिए आत्मा को विभु मानना आवश्यक नहीं है क्योंकि इसकी उपपत्ति तो afe आदि के साथ अदृष्ट का कोई साक्षात् सम्बन्ध मान लेने से भी हो सकती शुभाशुभ आचरणों से है । इस पर यदि यह शङ्का की जाय कि एक आत्मा के उत्पन्न होने वाले अनन्त अदृष्टों का अनन्त द्रव्यों के साथ साक्षात् सम्बन्ध मानने की अपेक्षा उन समस्त अदृष्टों का उस एक आत्मा के साथ सम्बन्ध मान कर उसके द्वारा विभिन्न द्रव्यों के साथ उनका सम्बन्ध स्थापित करने के लिये आत्मा को विभु मानना ही उचित है, तो उसका उत्तर यह है कि आत्मा को विभु मानना उचित नहीं हो सकता क्योंकि यदि उसे विभु माना जायगा तो शरीर के बाहर भी उसकी सत्ता माननी होगी और उस दशा में शरीर के समान शरीर के बाहर भी आत्मा के ज्ञान आदि गुणों के प्राकट्य की आपत्ति होगी, अतः आत्मा को शरीरमात्र में ही सीमित मानकर कार्यमात्र के प्रति अदृष्ट की कारणता को उपपन्न करने के लिये समस्त कार्यदेशों के साथ अदृष्ट के साक्षात् सम्बन्ध की कल्पना ही उचित है । इस सन्दर्भ में दूसरी शङ्का यह होती है कि यदि आत्मा विभु न होगा तो विभिन्न दिशाओं और विभिन्न स्थानों में स्थित परमाणुओं के साथ आत्मा के अदृष्ट का सम्बन्ध न हो सकने के कारण उनमें अदृष्टमूलक गति न हो सकेगी, और गति के अभाव में परमाणुओं का परस्पर मिलन तथा उससे शरीर आदि
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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