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इस सन्दर्भ में ग्रन्थकार का कथन यह है कि ऊपर बताये गये समस्त दोष देखने में यद्यपि सर्प के समान बड़े भयानक लगते हैं तथापि भगवान् महावीर के शासन में रहने वाले लोगों को उन दोष पन्नगों से कोई डर नहीं है क्योंकि वे स्याद्वाद के गारुडीय मन्त्र से सुरक्षित हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे सर्पविषनाशक गारुडीय मन्त्र को जानने वाले मनुष्यों को बड़े-बड़े विषैले सर्प कोई हानि नहीं पहुंचा पाते उसी प्रकार स्याद्वाद की रीति से समस्त विरोधों का समन्वय करने में कुशल जैन मनीषियों को भी उक्त आपत्तियाँ कोई हानि नहीं पहुँचा सकतीं क्योंकि जैनमत में आत्मा में मूर्तत्व, सावययत्व, कार्यत्व, खण्ड, प्ररोह और भिन्नात्मता अपेक्षाभेद से कथंचित् स्वीकार्य हैं ।
स्युर्वैभवे जननमृत्युशतानि जन्म
न्येकत्र पाटितशतावयवप्रसङ्गात् । चित्तान्तरोपगमतो बहुकार्य हेतु
भावोपलोपजनितं च भयं परेषाम् ॥ ७३ ॥
आत्मा को अव्यापक मानने पर जो दोष शङ्कास्पद थे उनका निराकरण कर आत्मा को व्यापक मानने पर प्रसक्त होने वाले अप्रतीकार्य दोषों का प्रदर्शन इस श्लोक में किया गया है । ऐसे दोषों में प्रधान दोष यह है कि यदि आत्मा व्यापक होगा तो एक ही जन्म में उसके सैकड़ों जन्म और मरण मानने होंगे, जैसे जब किसी छिपकली का शरीर कट जाने पर उस के कई खण्ड हो जाते हैं तब उन खण्डों में कुछ देर तक कपकंपी होती है, यह कपकंपी दुःखानुभव के कारण ही होती है, दुःखानुभव उन विभिन्न खण्डों में तभी हो सकता है जब उन में भिन्न-भिन्न मन का अनुप्रवेश माना जाय, और आत्मा के व्यापकत्वमत में भोगायतन में मन का प्रवेश ही आत्मा का जन्म और उसमें से मन का निष्क्रमण ही मरण कहलाता है । इसलिये किसी छिपकली का शरीर कटने पर उसके जितने खण्ड होंगे उन खण्डों में उतने मन का प्रवेश होने पर उस छिपकली के उतने ही जन्म और उन खण्डों से मन का निष्क्रमण होने पर उतने ही उसके मरण मानने होंगे ।
उक्त रीति से एक जन्म में एक जीव के कई जन्म और कई मरण तथा कई भोगायतनों में उस जन्म के कई भोग मानने का परिणाम यह होगा कि आत्मा के व्यापकत्वमत में माने गये कई कार्यकारणभावों के लोप का भय उपस्थित हो जायगा । जैसे किसी भी सामान्य जीव को एक जन्म में किसी एक ही शरीर में सम्पन्न होते हैं, यह ११ न्या० ख०
किसी एक ही मन से उस जन्म के वस्तुस्थिति है, इस वस्तुस्थिति को
सभी भोग व्यवस्थित