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________________ ( १२६ ) दूसरी बात यह है कि यदि अवयवी में प्रतीत होने वाले कम्प को अवयवगत मान कर अवयवी को निष्कम्प माना जायगा तो अवयवी में प्रतीत होने वाले अन्य समस्त धर्मों में भी यही न्याय लगेगा और उसका परिणाम यह होगा कि अवयवी निर्धमंक होने से तुच्छ हो जायगा और अवयवी के तुच्छ होने पर सर्वत्र शून्यवाद की दुन्दुभि बज उठेगी, तात्पर्य यह है कि जो धर्म जहाँ प्रतीत होता है यदि वहाँ उसका अस्तित्व मानना आवश्यक न होगा तो किसी दूसरे स्थान में उसका अस्तित्व क्यों माना जायगा, फलतः धर्म का अस्तित्व सर्वथा लुप्त हो जायगा, प्रतीत होने वाले समस्त पदार्थ अस्तित्वहीन हो जायेंगे, प्रतीतियां वस्तुमूलक न हो वासनामूलक हो जायंगी, और प्रतीतियों के वासनामात्रमूलक होने का ही अर्थ है शुन्यवाद ।। तीसरी बात यह है कि शाखा में कम्प होने के समय यह प्रतीति होती है कि 'वृक्ष अपने शाखाभाग में कम्पित हो रहा है। इस प्रतीति में वृक्ष और शाखा दोनों के साथ कम्प का सम्बन्ध भासित होता है, अब यदि शाखा को ही कम्पयुक्त मान कर वृक्ष को निष्कम्प माना जायगा तो उक्त प्रतीति को वृक्ष और शाखा में भासित होने वाले कम्प के सम्बन्धों के विषय में भ्रमात्मक मानना होगा, क्योंकि वृक्ष को निष्कम्प मानने पर केवल वृक्ष के साथ ही कम्प का सम्बन्ध नहीं होगा यह बात नहीं है अपितु शाखा के साथ भी कम्प का वह सम्बन्ध न होगा जो उक्त प्रतीति में शाखा के साथ भासित होता है, अभिप्राय यह है कि उक्त प्रसीति में वृक्ष के साथ कम्प का समवायसम्बन्ध तथा शाखा के साथ अवच्छेदकतासम्बन्ध भासित होता है, पर वृक्ष को निष्कम्प मानने पर ये दोनों ही सम्बन्ध नहीं बन सकते, यदि यह कहा जाय कि वृक्ष को निष्कम्प मानने पर वृक्ष के साथ कम्प का समवाय सम्बन्ध न हो किन्तु शाखा के साथ उसका अवच्छेदकत्व सम्बन्ध मानने में कोई बाधा नहीं है, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जब कोई धर्म किसी अवयवी में अंशतः समवेत होता है तभी उसका अवयव उस धर्म का अवच्छेदक होता है अन्यथा नहीं। यदि यह कहा जाय कि उक्त प्रसीति में वृक्ष और शाखा दोनों के साथ कम्प के समवाय सम्बन्ध का ही भान होता है, किन्तु वृक्ष के निष्कम्प होने से उसमें समवाय सम्बन्ध से जो कम्प का भान होता है उस अंश में वह प्रतीति भ्रम है, और शाखा के सकम्प होने से शाखा में जो समवाय सम्बन्ध से कम्प का भान होता है उस अंश में वह प्रतीति प्रमा है, तो यह कल्पना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वृक्ष और शाखा दोनों में समवाय सम्बन्ध से कम्प का भान मानने पर प्रतीति का ६ न्या० ख०
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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