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कम्पाभाव की
भ्रम से विषय
freeम्प भाग की ओर कम्पाभाव का अनुभव होता है, इसलिये अवयव के भेद से वृक्ष में कम्प तथा कम्पाभावरूप विरुद्ध धर्मो का समावेश माना जाता है और इसी कारण वृक्ष की अनेकान्तरूपता भी माननी पड़ती है, यदि यह कहा जाय कि वृक्ष के किसी अवयव में कम्प और अन्य अवयव में दशा में वृक्ष में जो कम्प का अनुभव होता है वह भ्रम है और की सिद्धि नहीं होती, अतः उस दशा में वृक्ष निष्कम्प ही रहता है, फलतः कम्प और कम्पाभाव के समावेश के आधार पर वृक्ष की अनेकान्तरूपता नहीं सिद्ध हो सकती, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर कम्पयुक्त भाग की ओर वृक्ष पर दृष्टि पड़ने पर जैसे वृक्ष में कम्प का भ्रम होता है उसी प्रकार निष्कम्प भाग की ओर दृष्टि पड़ने पर भी वृक्ष में कम्प का भ्रम होने लगेगा, और वृक्ष के एक भाग में कम्प होने के समय यदि उस भाग में वृक्ष को भी कम्पयुक्त माना जायगा तब वृक्ष में कम्प का ज्ञान यथार्थ होगा और वह निष्कम्प भाग की ओर वृक्ष के साथ नेत्र का संयोग होने पर नहीं होगा किन्तु कम्पयुक्त भाग की ओर नेत्र का संयोग होने से ही होगा, क्योंकि इस पक्ष में यह नियम माना जायगा कि किसी द्रव्य में अव्याप्त होकर रहनेवाले पदार्थ का दर्शन तभी होता है जब उस द्रव्य के साथ नेत्र का संयोग उस भाग में हो जिस भाग में वह द्रव्य इस अव्याप्यवृत्ति धर्म का आश्रय होता हो, यदि यह कहा जाय कि वृक्ष के एक भाग में कम्प होने के समय वृक्ष को निष्कम्प मानने के पक्ष में भी यह नियम माना जायगा कि वृक्ष में कम्प का भ्रम होने के लिए वृक्ष के जिस भाग में कम्प होता है उस भाग की ओर वृक्ष के साथ नेत्र का संयोग अपेक्षित है, अतः निष्कम्प भाग की ओर वृक्ष के साथ नेत्र का संयोग होने से वृक्ष में कम्प के भ्रम की आपत्ति न होगी, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस नियम की कल्पना का कोई आधार नहीं है, कम्पयुक्त भाग की ओर ही दृष्टि पड़ने पर वृक्ष में कम्प का ज्ञान होना और निष्कम्प भाग की ओर दृष्टि पड़ने पर कम्प के ज्ञान का न होना ही उक्त नियम की कल्पना का आधार है, यह कथन भी समीचीन नहीं है, क्योंकि इस घटना की उपपत्ति वृक्ष में अव्याप्यवृत्ति कम्प का उदय मान लेने से भी हो जाती है, ओर वृक्ष के एक भाग में कम्प होने के समय वृक्ष को कम्पयुक्त मानने के पक्ष में निष्कम्प भाग की ओर वृक्ष पर दृष्टि पड़ने पर वृक्ष में कम्प के ज्ञान का जन्म रोकने के हेतु जिस नियम की चर्चा की गई है उसके आधारहीन होने का प्रश्न ही नहीं उठाया जा सकता, क्योंकि वृक्ष में अव्याप्त होकर रहने वाले संयोग आदि अन्य धर्मों की उस प्रकार की प्रतीति के निवारणार्थं वह नियम पहले से ही स्वीकृत है ।