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________________ ( ११७ ) किन्तु उसकी प्राची दिशा से संयुक्त होगा वह उससे प्राची कहा जायगा। इस व्यवस्था के मानने पर लम्बी लाठी में उसके मध्यवर्ती अवयव की अपेक्षा प्राची का व्यवहार नहीं होगा, क्योंकि वह लाठी अपने मध्यवर्ती अवयव की प्रतीची आदि दिशाओं से असंयुक्त नहीं है और इस व्यवस्था में उक्त व्यवहार के लिए किसी वस्तु को सावयव मानने की आवश्यकता नहीं है, अतः परमाणु के निरवयव होने पर भी उसमें प्राची आदि व्यवहार हो सकता है। फलतः विज्ञानवादी की उक्त युक्ति से भी निरवयव परमाणु का खण्डन नहीं हो सकता। आकाश आदि निरवयव द्रव्यों की छाया नहीं होती और न उनसे किसी का आवरण ही होता अतः यह मानना होगा कि छाया और आवरण सावयव द्रव्य में ही होते हैं। इस मान्यता के फलस्वरूप परमाणु को सावयव मानना अनिवार्य हो जायगा, क्योंकि मूर्त होने के नाते उसमें भी छाया और आवरण स्वीकार करना पड़ता है और उक्त कारणवश जब परमाणु को सावयव मानना पड़ा तब निरवयव परमाणु की कल्पना कथमपि सम्भव नहीं हो सकती। विज्ञानवादी का यह कथन भी संगत नहीं है, यतः छायादार और आवरणकारी होने के लिए परमाणु को सावयव मानने की आवश्यकता नहीं है, यह आवश्यकता तो तब होती जब सावयवत्व छाया और आवरण का मूल होता, पर सावयवत्व को उनका मूल नहीं माना जा सकता क्योंकि स्वच्छ दर्पण आदि द्रव्यों के सावयव होने पर भी उनमें छाया और आवरण का अस्तित्व नहीं होता, अतः छाया और आवरण के सम्बन्ध में यह व्यवस्था मान्य है कि तेज जिस द्रव्य को पार कर आगे न जा सके अर्थात् जिस द्रव्य के संयोग से तेज की गति रुक जाय वह द्रव्य छायावान् तथा आवरणकारी होता है । तो यदि परमाणु में छाया और आवरण का होना प्रामाणिक हो तो उसमें तेज की गति का विरोधी संयोग मान लेने से उसमें छाया और आवरण की उपपत्ति हो जायगी, अतः तदर्थ उसमें सावयवत्व की कल्पना अनावश्यक तथा असंगत है। परमाणु सावयव है क्योंकि वह मूर्त है, जो-जो मूर्त होता है वह सब सावयव होता है, जैसे घट, पट, आदि। इस अनुमान से परमाणु में सावयवत्व की सिद्धि होने से निरवयव परमाणु की कल्पना में बाधा होगी, यह कथन भी संगत नहीं हो सकता क्योंकि परमाणु की सिद्धि तथा असिद्धि दोनों दशा में उक्त अनुमान का व्याघात हो जाता है. अर्थात् परमाणु की सिद्धि के पूर्व उक्त अनुमान का प्रयोग करने पर परमाणु-रूप आश्रय के सिद्ध न रहने से आश्रयासिद्धि दोष होगा, और परमाणु की सिद्धि के पश्चात् उक्त अनुमान का प्रयोग करने पर बाधदोप होगा, क्योंकि परमाणु स्वसाधक प्रमाण से अवयवहीन ही
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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