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________________ ( ११६ ) आवश्यक होने के कारण निरंश परमाणु की सिद्धि नहीं हो सकती। विज्ञानवादी की इस युक्ति से भी परमाणु का खण्डन नहीं हो सकता, क्योंकि परमाणु के निरंश होने पर भी उसके स्वरूप की स्वाभाविक विलक्षणता के कारण एक ही संयोग से उसके स्वरूप का निगरण न होकर उसमें अनेक संयोगों की उत्पत्ति सुघट हो सकती है। अतः तदर्थ उसमें अंश की कल्पना अनावश्यक है। वस्तु के स्वरूप-वैलक्षण्य को इस प्रकार का महत्वदान विज्ञानवादी के लिये भी आवश्यक है क्योंकि यदि वह वस्तु के स्वरूपगत उक्त महत्त्व को स्वीकार न करेगा तो उसे निरंश ज्ञान की सिद्धि की आशा का भी परित्याग करना पड़ेगा, कारण कि जैसे अंशभेद के विना एक परमाणु अनेक परमाणुओं से संयुक्त नहीं हो सकता वैसे ही एक ज्ञान भी अंशभेद के विना अनेक वस्तुओं का ग्राहक नहीं हो सकता. क्योंकि ज्ञान को सांश न मानने पर उसे सर्वात्मनैव अपने विषय का ग्राहक मानना होगा। फलतः एक ज्ञान किसी एक ही विषय को ग्रहण करने में पूर्णरूपेण व्याप्त हो जाने के कारण दूसरे विषय का ग्रहण न कर सकेगा। और जब ज्ञान को अंशवान् माना जायगा तब एकज्ञान भी अपने भिन्न-भिन्न अशों से अपने भिन्न-भिन्न विषयों का ग्रहण कर सकेगा। अतः उक्त प्रकार से प्रसक्त होने वाले ज्ञान की सांशता का परिहार करने के लिए विज्ञानवादी को यही कहना पड़ेगा कि ज्ञान निरश होने पर भी अपने स्वाभाविक स्वरूपवैलक्षण्य के कारण ही अनेक विषयों का ग्रहण करता है। इसके फलस्वरूप निरंशज्ञान में अनेक विषयों के ग्राहकत्व के समान निरंश परमाणु में अनेक परमाणुओं के संयोग की उत्पत्ति सम्भव हो सकने के कारण उक्त युक्ति से निरंश परमाणु का निराकरण नहीं हो सकता । ___ आकाश आदि निरवयव द्रव्यों में प्राची, प्रतीची आदि का व्यवहार अर्थात् आकाश अमुक से प्राची-पूरब तथा अमुक से प्रतीची--पश्चिम है, एवं अमुक से उदीची- उत्तर तथा अमुक से अवाची- दक्षिण है इस प्रकार का व्यवहार नहीं होता किन्तु घट, पट आदि सावयव द्रव्यों में ही होता है, अतः सावयवत्व को ही उक्त व्यवहार का मूल मानना होगा, और इसके फलस्वरूप परमाणु को भी सावयव मानना पड़ेगा, क्योंकि उसमें भी प्राची, प्रतीची आदि का व्यवहार होता है । अतः निरवयव परमाणु की कल्पना अशक्य है। विज्ञानवादी का यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि सावयवत्व को प्राची, प्रतीची आदि के व्यवहार का मूल नहीं माना जा सकता, कारण कि यदि उसे उक्त व्यवहार का मूल माना जायगा तो किसी लम्बी लाठी के मध्यवर्ती अवयव की अपेक्षा भी उसमें प्राची आदि का व्यवहार होने लगेगा। अतः उक्त व्यवहार के सम्बन्ध में यह व्यवस्था करनी होगी कि जो जिसकी प्रतीची आदि दिशाओं से संयुक्त न होगा
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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