________________
(१११ )
चित्र से भिन्न अनन्त द्रव्यों में व्याप्त होकर ही रहते हैं अतः वे चित्र कहे जाने वाले द्रव्य में भी अव्याप्त होकर नहीं रह सकते, यतः यह नियम है कि जिस जाति के गुण अपने अभावस्थल को छोड़ कर ही रहते आये हैं उस जाति का कोई गुण कभी भी अपने किसी अभावस्थल में नहीं रहता। इस नियम की किसी भी स्थिति में उपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि यदि इसकी उपेक्षा की जायगी तो जातीयता के आधार पर विरोध और अविरोध की लोकसम्मत व्यवस्था का भङ्ग हो जायगा अर्थात् वस्तु का उसके अभाव के साथ व्यक्तिगत विरोध तो उपपन्न हो जायगा पर जातीय स्तर पर उसकी उपपत्ति न हो सकेगी।
यदि यह कहा जाय कि अतिरिक्त चित्र रूप की सत्ता स्वीकार कर लेने पर भी चित्र अवयवी में अव्याप्त भाव से नील आदि रूपों की भी उत्पत्ति माननी ही पड़ेगी, क्योंकि अवयव में जिस जाति का रूप होता है अवयवी में उस जाति के रूप की उत्पत्ति का नियम है। तो यह भी कथन ठीक नहीं है, क्योंकि उपर्युक्त युक्ति से नील आदि गुणों को अव्याप्यवृत्ति नहीं माना जा सकता अर्थात् एक द्रव्य के एक भाग में उनके अभाव का अस्तित्व नहीं माना जा सकता, अतः चित्र अवयवी में नील आदि गुणों की उत्पत्ति को रोकने के लिये यह मानना होगा कि अवयवी में नीलादि जातीय रूप की उत्पत्ति में अवयव गत अन्य जातीय रूप प्रतिबन्धक होता है, फलतः अवयव के रूप का सजातीय रूप उसी अवयवी में उत्पन्न होगा जो किसी एक जाति के ही रूपवाले अवयवों से उत्पन्न होगा और जो अवयवी विभिन्न जातीय रूप वाले अवयवों से उत्पन्न होगा उसमें अवयवगत रूप से विजातीय चित्र रूप ही उत्पन्न होगा। ___संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्मों के एकत्र समावेश की सम्भावना पर उक्त रीति से विचार करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि अवयवी कहे जाने वाले द्रव्य में परस्पर विरोधी धर्मो का ऐसा कोई समावेश नहीं प्रमाणित होता जिससे उसकी एकद्रव्यता में कोई बाधा हो, अतः यह अभ्रान्त रूप से स्वीकार किसी जा सकता है कि अवयवी एकदेशस्थ अवयवों के समुदाय मात्र से गतार्थ हो सकता किन्तु अवयवों से भिन्न उसका अपना मौलिक अस्तित्व भी है।
दृष्टो ह्यदृष्ट इति को निरपेक्षमाह
देशावृतौ स्फुटमनावृत एव देशी। देशे चलत्यपि चलत्वमसौ न धत्ते -
देशभ्रमादवयवी भ्रमभाजनं नो ॥ ४९ ॥