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जो वस्तु दर्शन का विषय है वह निरपेक्ष रूप से दर्शन का अविषय है, यह बात कौन कहता है ? अर्थात् यह किसी का भी मत नहीं हो सकता कि एक वस्तु एक ही अपेक्षा से अर्थात् एक हो दृष्टि से दर्शन का विषय भी हो सकती है और दर्शन का अविषय भी हो सकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि परस्पर विरूद्ध प्रतीत होने वाले भावाभावात्मक धर्मों का एक वस्तु में समावेश किसी एक दृष्टि से नहीं हो सकता है किन्तु दृष्टिभेद से ही हो सकता है। देशअंश का आवरण होने पर देशी-अंशी स्पष्टरूपेण अनावृत ही रहता है, अर्थात् जिस समय किसी अंशी का कोई एक अंश आवृत होता है उस समय वह अंशी स्वयम् अनावृत ही रहता है, फलतः आवरण और अनावरण का किसी एक वस्तु में युगपत् समावेश नहीं होता। इसी प्रकार देश-अंश के गतिमान् होने पर भी देशी अंशी गतिमान् नहीं होता और देश-अंश में भ्रमण उत्पन्न होने पर भी देशी-अंशी भ्रमणहीन रहता है, अर्थात् जिस समय किसी अंशी का कोई एक अंश गतिशील हो उठता है अथवा घूमने लगता है उस समय भी वह अंशी स्वयं न गतिशील होता है और न घूमता ही है किन्तु निश्चल ओर स्थिर रहता है, फलतः गति एवं गतिराहित्य जैसे विरुद्ध धर्मो का समावेश एक वस्तु में नहीं होता।
संयोगतद्विरहयोश्च गतिः प्रकार
भेदेन तन्निलयतातदभावयोश्च । वृत्तिः स्वरूपनिरतैव च चित्रमेक
मित्यादि ते नयमतं समयाब्धिफेनः ।। ५० ॥ एक वस्तु में संयोग और संयोगाभाव तथा तद्देशाश्रितत्व और तद्देशानाश्रितत्व की उपपत्ति प्रकार-भेद से अर्थात् अवच्छेदकभेद से हो जाती है, जैसे उसी वृक्ष में शाखावच्छेदेन कपिसंयोग और मूलावच्छेदेन कपिसंयोगाभाव अथवा शाखाद्यवच्छेदेन संयोग और वृक्षत्वावच्छेदेन संयोगसामान्याभाव रहता है, एवं एक ही वस्तु उसी देश में एक काल में आश्रित और कालान्तर में अनाश्रित होती है अर्थात् उसी वस्तु में एककालावच्छेदेन तद्देशाश्रितत्व और अन्यकालावच्छेदेन तद्देशानाश्रित्व रहता है। अवयवों में अवयवी का अवस्थान स्वरूपनिरत है अर्थात् अवयवी अपने अवयवों में न तो एकदेशेन रहता है और न समग्रदेशेन रहता है। किन्तु अपने निजी स्वरूप से व्यासज्यवृत्ति होकर रहता है । चित्र रूप अनेक रूपों की समष्टि नहीं है किन्तु एक स्वतन्त्र रूप है । न्यायशास्त्र के ये मत, हे भगवन् ! आपके सिद्धान्तसमुद्र के फेन के समान हैं, क्यों कि जिस प्रकार फेन जलराशि के ऊपर उसी का रूप-रंग धारण किये तैरता हुआ