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________________ ( ११० ) यह कहा जाय कि नील पीत आदि रूपों की समष्टि अपने आश्रय में चित्र प्रतीति का उत्पादन नहीं करती किन्तु अपने विभिन्न आश्रयों द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले द्रव्य में उसका उत्पादन करती है। अतः प्रतीत होने वाले अवयवी में कोई रूप नहीं रहता, अवयवों के नील पीत आदि रूपों द्वारा उसमें चित्र रूप की प्रतीति होती है, तो यह ठीक नहीं है, क्यों कि नील, पीत आदि रूप वाले अवयवों से उत्पन्न होने वाला अवयवी यदि नीरूप होगा तो उसका चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा यतः द्रव्य का चाक्षुष प्रत्यक्ष होने के लिये उसका रूपवान् होना आवश्यक होता है। यदि यह कहा जाय कि द्रव्य के चाक्षुष प्रत्यक्ष के लिये द्रव्य का रूपवान् होना आवश्यक नहीं है किन्तु रूपवान् द्रव्य में आश्रित होना आवश्यक है, अतः चित्र प्रतीत होने वाला अवयवी नीरूप होने पर भी रूपवान् अवयवों में आश्रित होने के कारण चाक्षुष प्रत्यक्ष का विषय हो जायगा, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि नील, पीत आदि एकमात्र रूपवाले द्रव्य के चाक्षुष प्रत्यक्ष में रूपवान् में आश्रित होने को प्रयोजक मानने में गौरव है और रूप को प्रयोजक मानने में लाघव है, अतः सर्वत्र रूप को ही द्रव्य के चाक्षुष प्रत्यक्ष का प्रयोजक मानना उचित है। फलतः चित्र प्रतीत होने वाला अवयवी यदि नीरूप माना जायगा तो उसका चाक्षुष प्रत्यक्ष न हो सकेगा। इसलिये इसी सिद्धान्त को मान्यता देनी होगी कि नील, पीत आदि अनेक रूपवाले अवयवों से उत्पन्न होने वाले अवयवी में चित्र जाति का एक अतिरिक्त रूप उत्पन्न होता है और वही पूरे अवयवी में व्याप्त होकर रहता है। इस पर यह प्रश्न हो सकता है यदि चित्र रूप पूरे अवयवी में व्याप्त होकर रहता है तो उसके नील, पीत आदि एक भाग मात्र में चित्र रूप का दर्शन क्यों नहीं होता, तो इसका उत्तर यह है कि अवयवी में चित्र रूप के दर्शन के लिये अवयवों में नील, पीत आदि अनेक रूपों का दर्शन अपेक्षित होता है, अतः जिस समय किसी चित्र अवयवी के किसी एक ही भाग के साथ चक्षु का सन्निकर्ष होता है उस समय अवयवों में अनेक रूपों के दर्शन रूप कारण का अभाव होने से चित्र रूप के दर्शन की आपत्ति नहीं हो सकती। यदि यह कहा जाय कि नील, पीत आदि अनेक रूप वाले अवयवों से उत्पन्न होने वाले अवयवी में नील, पीत आदि अनेक रूप उत्पन्न होते हैं पर वे सब पूरे अवयवी में व्याप्त होकर नहीं रहते किन्तु उसके विभिन्न भागों में रहते हैं, इसलिये अवयवी के पूरे कलेवर में नील, पीत आदि प्रत्येक रूप का दर्शन नहीं होता, इस प्रकार एक व्यक्ति में अव्याप्त होकर रहने वाले नील पीत आदि अनेक रूपों की समष्टि का ही नाम चित्र है न कि चित्र जाति का कोई अतिरिक्त रूप है। तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि नील, पीत आदि गुण
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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