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________________ ( १०६ ) नहीं माना जा सकता, क्यों कि ऐसा मानने पर एक ही अवयव में पूरे अवयवी की समाप्ति हो जायगी, फिर दूसरे अवयव में रहने को अवयवी का कुछ शेष न रह जायगा, फलतः अनेक अवयवों का अस्तित्व असम्भव हो जायगा । तो यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि अस्तित्व के उक्त प्रकार समुदायात्मक पदार्थ में ही सम्भव होते हैं, अवयवी तो समुदायात्मक नहीं है किन्तु एक पृथक् द्रव्य है, अत: उसके सम्बन्ध में अंशतः अथवा सर्वांशतः रहने का प्रश्न ही नहीं उठ सकता । इस पर यदि यह प्रश्न किया जाय कि अच्छा बताइये तो फिर अवयवों में अवयवी किस प्रकार रहता है तो इसका उत्तर यही है कि वह अपने समस्त अवयवों में स्वरूपतः व्यासज्यवृत्ति होकर रहता है, अर्थात् अवयवी अपने प्रत्येक अवयव में पूर्णतया रहता है फिर भी उसी में समाप्त नहीं हो जाता, किन्तु उसकी समाप्ति समस्त अवयवों में ही होती है । तद्देशव और अतद्देशत्व के सम्बन्ध से भी अवयवी के नानात्व का साधन नहीं किया जा सकता, क्योंकि अत देशत्व का अर्थ यदि तद्देश से भिन्न देश में आश्रित होना लिया जायगा तो उसका तद्देशत्व के साथ विरोध नहीं होगा, क्यों कि एक वस्तु का परस्पर भिन्न दो देशों में आश्रित होना अनेकशः दृष्ट है, अतः परमाणुपुब्ज से अतिरिक्त अवयवी के अस्वीकार पक्ष में जैसे एक परमाणु में अनेक परमाणुवों का सहसम्बन्ध माना जाता है वैसे अतिरिक्त अवयवी के स्वीकार पक्ष में भी एक अवयवी में अनेक अवयवों का सहसम्बन्ध माना जा सकता है। और यदि अतद्देशत्व का अर्थ तद्देश में आश्रित न होना लिया जायगा तो भी तद्देशत्व-तद्देश में आश्रित होने, के साथ उसका विरोध नहीं होगा, क्यों कि एक वस्तु का एक ही देश में आश्रित होना तथा आश्रित न होना, ये दोनों बात काल भेद से सूघट हो सकती हैं। ___ चित्र और चित्रेतर इन परस्पर विरोधी रूपों के समावेश से भी अवयवी के एकत्व का निराकरण नहीं हो सकता, क्यों कि चित्र अवयवी में चित्रेतर रूप रहता ही नहीं अपितु उसमें चित्र नामक एक ही रूप व्यापकरूपेण रहता है और वह नील, पीत आदि रूपों से विजातीय है। कहने का तात्पर्य यह है कि चित्र प्रतीत होने वाले अवयवी की एकता का भङ्ग तब होता जब चित्र जाति का एक अतिरिक्तरूप न माना जाता किन्तु नील, पीत आदि अनेक रूपों की समष्टि को ही चित्र रूप माना जाता, क्यों कि उस स्थिति में यही कहना पड़ता कि चित्र प्रतीत होने वाला अवयवी एक व्यक्ति नहीं है किन्तु अनेक व्यक्तियों का समुदाय है अतः उसे एक व्यक्ति मानने पर उसमें नील, पीत आदि अनेक रूपों के समुदायस्वरूप चित्र रूप का अवस्थान नहीं हो सकता। यदि
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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