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________________ ( १०८ ) संयोग होने पर अवयवी में रक्तत्व का सम्बन्ध नहीं माना जाता किन्तु रक्तत्व का भ्रममात्र माना जाता है, फलतः अवयवी में रक्तत्व और अरक्तत्व का समावेश प्रसक्त ही नहीं है। --- संयोग और असंयोग के समावेश से भी अवयवी के एकत्व की क्षति नहीं हो सकती, क्योंकि जिस समय अवयवी में वा उस के कुछ भाग में रक्तत्व का भ्रम होता है उस समय अवयवी में यद्यपि रक्तद्रव्य के संयोग और असंयोग दोनों का समावेश होता है तथापि उससे भेद का साधन नहीं किया जा सकता, कारण कि उक्त संयोग और असंयोग अवयवो में अंशभेद से अव्याप्यवृत्ति होकर रहते हैं और अव्याप्यवृत्ति संयोग तथा असंयोग में भेद की व्याप्ति नहीं है अर्थात् उस वस्तु से संयुक्त द्रव्य उस वस्तु से असंयुक्त द्रव्य से भिन्न होता है वा उस वस्तु से असंयुक्त द्रव्य उस वस्तु से संयुक्त द्रव्य से भिन्न होता है, यह नियम नहीं है । अतः संयोग और असंयोग के आंशिक समावेश से उस अवयवी में उसी अवयवी के भेद का साधन नहीं किया जा सकता। वृत्ति के सम्भावित प्रकारों की अनुपपत्ति से भी अवयवी के अस्तित्व का लोप नहीं हो सकता क्यों कि वृत्ति के समस्त प्रकारों की अनुपपत्ति है ही नहीं । यदि यह कहा जाय कि अवयवों में अवयवी के रहने के दो ही प्रकार हो सकते हैं, जैसे अवयवों में अवयवी का किसी अंशविशेष से रहना अथवा समस्त रूप से रहना । पर ये दोनों ही प्रकार संगत नहीं हैं, क्यों कि उस अवयव में उसी अवयव के द्वारा अवयवी का अस्तित्व यदि माना जायगा तो उस अवयव में उस अवयव की भी स्थिति माननी पड़ेगी जो आत्माश्रय दोष के कारण स्वीकार्य नहीं है । इस दोष के परिहारार्थ यदि किसी अन्य नवीन अवयव द्वारा अवयवी का अस्तित्व माना जायगा तो यह तभी सम्भव होगा जब उस नवोन अवयव में भी अवयवी का अस्तित्व माना जाय, और यह यदि पूर्व अवयव द्वारा माना जायगा तो पूर्व अवयव में नवीन अवयव और नवीन अवयव में पूर्व अवयव का अस्तित्व मान्ने से अन्योन्याश्रय दोष होगा। यदि इस दोष को भी दूर करने के उद्देश्य से किसी और अन्य नवीन अवयव की कल्पना की जायगी तो चक्रक तथा उससे अधिक और नवीन अवयव की कल्पना करने पर अनवस्था दोष होगा। यदि इन दोषों के कारण नवीन अवयव की कल्पना त्याग कर क्लप्त अवयवों में से ही एक दूसरे को एक दूसरे में अवयवी के अस्तित्व का द्वार माना जायगा तो भी अवयवों को परस्पराश्रित मानने के कारण अन्योन्या. श्रय दोष होगा. अतः अवयवों में अवयवी का अंशतः अवस्थान मान्य नहीं हो सकता। इसी प्रकार अवयवों में अवयवी का समस्त रूप से भी अस्तित्व
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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